हर दिन जिंदा रहने मे
खर्च है बहुत
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.
जीविका बन गयी है
यायावरी का पर्याय
हममे और बनज़ारों मे
फर्क नही राह
काबिलियत मापते हैं फर्क नही राह
बस एक ही पैमाने से
कोई किसी का हमदर्द नही रहा
उमंगें उड़ान की और
सपने मचल रहे हैं
शाम की शीतलता के लिए
भोर होते ही जल रहे हैं
हर दिन जिंदा रहने मे
शर्त है बहुत
शर्त है बहुत
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.
आचरण हमारा भी
थोडा बदल गया
चेहरे पढ़ पढ़ कर
चेहरा ढल गया
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.
आचरण हमारा भी
थोडा बदल गया
चेहरे पढ़ पढ़ कर
चेहरा ढल गया
बदल गयी परम्पराएं
रिश्तेदारियाँ निभाने की
रिश्तेदारियाँ निभाने की
अपनी शैली मे कुछ
हम कर नही सकते
हम कर नही सकते
हर दिन जिन्दा रहने मे
दर्द है बहुत
दर्द है बहुत
और अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते !!
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते !!
39 comments:
वाह ! अच्छी कविता है ...
ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी -
हर दिन जिंदा रहने मे
शर्त/दर्द/खर्च है बहुत
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.
यही तो रोना है ... की जिंदगी से फुर्सत नहीं है ...
हर दिन जिंदा रहने मे
खर्च है बहुत
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.
क्या कहूँ सुलभ जी , पता नहीं आपको भी दुखती रग को खुरचने में क्या मजा आता है !
aap ko bhut jivn jeena hai bde kam krne hai
bdhai
dr. ved vyathit
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.
kya baat hai janab .........uniqe
unchhua khayal kabil-e-daad .
सुलभ जी बहुत अच्छी भावाभिव्यक्ति।
हर दिन जिन्दा रहने मे
दर्द है बहुत
और अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते !!
Shayad kayi logonki bhavnayen isme shumar hongi...
हर दिन जिंदा रहने मे
खर्च है बहुत
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.
मरना तो सीखना ही होगा जो जिन्दा रहना है
एकदम बढिया
बहुत सुंदर जनाव , वाह वाह खुदवा खुद मुंह से निकलती है
एक नए अंदाज़ में , बढ़िया कविता ।
सच है जीना भी एक कला है
आपकि भावनाओं के साथ बह कर पढ़ गया
और काफी कुछ सोचता रहा
जाने क्या क्या
और अब लिखने बैठा तो लग रहा है इतना कुछ फालतू सोचा
सोच का क्या है बदलती रहती है
दुःख - सुख दोनों अपना निशाँ छोड़ कर चले जाते है,, कोई साथ रहना ही नहीं चाहता
कोई तो हमारे साथ रहे
किसी को तो अपना कह सकें
कुछ तो हो जो अपना हो
हद है इतना अकेलापन
क्या करूँ मै इस अकेलेपन का
और कंप्यूटर पर जो गजल बज रही है वो भी तो खूब है .......
बेबसी जुर्म है हौसला जुर्म है
जिंदगी तेरी इक इक अदा जुर्म है
आचरण हमारा भी
थोडा बदल गया
चेहरे पढ़ पढ़ कर
चेहरा ढल गया ....
कटु सत्य का एक नव रूपांतरण बहुत खूब
सुन्दर अभिव्यक्ति ! विचारपरक !
bahut khub
badhai is ke liye aap ko
बेहतरीन रचना....व्यथा छलक छलक पड़ रही है....
अफ़सोस
दो चार दिन के लिए
मर नहीं सकते...
पढने के बाद भी ये पंक्तियाँ मस्तिष्क में कहीं गूंजती रहती हैं....
उमंगें उड़ान की और
सपने मचल रहे हैं
शाम की शीतलता के लिए
भोर होते ही जल रहे हैं
हर दिन जिंदा रहने मे
शर्त है बहुत
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.
ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी ....
bahot achchi lagi.
आचरण हमारा भी
थोडा बदल गया
चेहरे पढ़ पढ़ कर
चेहरा ढल गया
बदल गयी परम्पराएं
रिश्तेदारियाँ निभाने की
जाने कितने ही दिमाग में गड़े मुर्दे उठ खड़े हुए और फिर शुरू हो गयी वही पुरानी कहानी. कितनी खूबसूरती से इतना दर्द पिरोया है एक एक शब्द में कि महसूस भी हो रहा है क्या ख्वाहिश कि है कि "दो चार दिन को मर नहीं सकते " अद्भुत
जीविका बन गयी है
यायावरी का पर्याय
हममे और बनज़ारों मे
फर्क नही राह
काबिलियत मापते हैं
बस एक ही पैमाने से
कोई किसी का हमदर्द नही रहा
बहुत अच्छी कविता सुलभ जी ....आप तो दोनों में सिद्धस्त हैं ....
(फर्क नही राह ...शायद यहाँ रहा लिखना चाहते थे ....)
हरकीरत जी,
वर्तनी त्रुटी सुधार के लिए शुक्रिया.
मौनता दे अर्थ ऐसे व्याकरण मिलते नहीं हैं |
प्यार हो जग के लिए अंत : करण मिलते नहीं हैं |
शिलाओं का अकेलापन बहुत रोता अंधेरों में ,
जिनकी छुअन आकारदे दे वह चरण मिलते नहीं हैं |
बढ़िया. इस बार का तो शीर्षक ही खींच लाया.
हर दिन जिंदा रहने मे
खर्च है बहुत
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.
...वाह! बेहतरीन पंक्तियों से कविता की शुरुआत की है आपने. अनूठा व् अच्छा प्रयोग. पूरी कविता बहुत अच्छी है. सच-सच लिख दो तो करार व्यंग्य हो जाता है आजकल..!
..शाम की शीतलता के लिए
भोर होते ही जल रहे हैं ...
..वाह! क्या बात है.
..बधाई.
सुंदर अभिव्यक्ति !
वाकई दर्द है.
achha nahi hai ye .....haa bahut hi aachha hai ...waakai shaandaar
http://athaah.blogspot.com/
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते
मन की बात को शब्द दे दिए
क्या ख्याल है!?!
दो चार दिन के लिए मर नहीं सकते?
लेकिन एक सवाल पूछने की हिमाकत कर रहा हूँ, क्या उसके बाद हालात बादल जायेंगे?
दर्द और आक्रोश की झलक आ रही है आपकी इस रचना में .. समाज के प्रेती, रिस्टन के प्रति इस व्यवस्था के प्रति .... बहुत ही लाजवाब अभिव्यक्ति है सुलभ जी ....
bahut he badhiya sulabh bhai...
हर दिन जिंदा रहने मे
खर्च है बहुत
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.
उफ़,........अद्भुत आरम्भ......अंत तक कविता में वही तेवर......सुलभ साब दिल से बधाई स्वीकार करें
सुलभ जी, आप त जिन्नगी का हकीकत लिख दिए हैं, एकदम आईना का जइसा , जे झाँकेगा उसको उसी का कहानी दिखाई देगा...
बहुत बढ़िया और बिल्कुल सठिक लिखा है आपने! सभी को एक न एक दिन मरना ही है और ये बात सौ फीसदी सही है!
का बात कहे हैं… आज का महौल का सचाई लिख दिए हैं..
इस रचना ने बाध्य कर दिया तारीफ़ करने को। आप लिखते तो अच्छा हैं ही, गाते भी अच्छा हैं।
बहुत अच्छे!
शुभेच्छु
@ हिमान्शु मोहन जी
माफ़ कीजियेगा, मैं गाना गा नहीं पाता, वर्ना आप जैसे स्नेहीजन को जरुर सुनाता.
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.
wah!!
कविता नहीं सच उकेर दिया ज़िन्दगी. हम में से अधिकांश, जो आजीविका के लिए यायावरी को मजबूर हैं, ऐसे ही जीते हैं. आप ने इधर अपनी आग को काफी तपाया है और हम लोग सोने को कुंदन बनते देख रहे हैं.
एक निवेदन: आप वर्तनी (स्पेलिंग) की अशुद्धियों पर ध्यान नहीं देते. पोस्ट करने पूर्व एक बार यदि नजर मार लें तो यह समस्या भी नहीं रहेगी.
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