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Saturday, May 1, 2010

दो चार दिनों के लिए मर नही सकते...!







र दिन जिंदा रहने मे
खर्च है बहुत
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.


जीविका बन गयी है
यायावरी का पर्याय
हममे और बनज़ारों मे
फर्क नही राह
काबिलियत मापते हैं
बस एक ही पैमाने से
कोई किसी का हमदर्द नही रहा

उमंगें उड़ान की और
सपने मचल रहे हैं
शाम की शीतलता के लिए
भोर होते ही जल रहे हैं
हर दिन जिंदा रहने मे
शर्त है बहुत
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.

आचरण हमारा भी
थोडा बदल गया
चेहरे पढ़ पढ़ कर
चेहरा ढल गया
बदल गयी परम्पराएं
रिश्तेदारियाँ निभाने की
अपनी शैली मे कुछ
हम कर नही सकते
हर दिन जिन्दा रहने मे
दर्द है बहुत
और अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते !!

39 comments:

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

वाह ! अच्छी कविता है ...
ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी -

हर दिन जिंदा रहने मे
शर्त/दर्द/खर्च है बहुत
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.

यही तो रोना है ... की जिंदगी से फुर्सत नहीं है ...

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

हर दिन जिंदा रहने मे
खर्च है बहुत
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.

क्या कहूँ सुलभ जी , पता नहीं आपको भी दुखती रग को खुरचने में क्या मजा आता है !

vedvyathit said...

aap ko bhut jivn jeena hai bde kam krne hai
bdhai
dr. ved vyathit

निर्झर'नीर said...

अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.

kya baat hai janab .........uniqe
unchhua khayal kabil-e-daad .

मनोज कुमार said...

सुलभ जी बहुत अच्छी भावाभिव्यक्ति।

kshama said...

हर दिन जिन्दा रहने मे
दर्द है बहुत
और अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते !!
Shayad kayi logonki bhavnayen isme shumar hongi...

M VERMA said...

हर दिन जिंदा रहने मे
खर्च है बहुत
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.
मरना तो सीखना ही होगा जो जिन्दा रहना है
एकदम बढिया

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर जनाव , वाह वाह खुदवा खुद मुंह से निकलती है

डॉ टी एस दराल said...

एक नए अंदाज़ में , बढ़िया कविता ।

सु-मन (Suman Kapoor) said...

सच है जीना भी एक कला है

वीनस केसरी said...

आपकि भावनाओं के साथ बह कर पढ़ गया

और काफी कुछ सोचता रहा

जाने क्या क्या
और अब लिखने बैठा तो लग रहा है इतना कुछ फालतू सोचा

सोच का क्या है बदलती रहती है

दुःख - सुख दोनों अपना निशाँ छोड़ कर चले जाते है,, कोई साथ रहना ही नहीं चाहता

कोई तो हमारे साथ रहे

किसी को तो अपना कह सकें

कुछ तो हो जो अपना हो

हद है इतना अकेलापन

क्या करूँ मै इस अकेलेपन का

वीनस केसरी said...

और कंप्यूटर पर जो गजल बज रही है वो भी तो खूब है .......

बेबसी जुर्म है हौसला जुर्म है
जिंदगी तेरी इक इक अदा जुर्म है

Unknown said...

आचरण हमारा भी
थोडा बदल गया
चेहरे पढ़ पढ़ कर
चेहरा ढल गया ....
कटु सत्य का एक नव रूपांतरण बहुत खूब

उम्मतें said...

सुन्दर अभिव्यक्ति ! विचारपरक !

Shekhar Kumawat said...

bahut khub


badhai is ke liye aap ko

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बेहतरीन रचना....व्यथा छलक छलक पड़ रही है....

अफ़सोस
दो चार दिन के लिए
मर नहीं सकते...

पढने के बाद भी ये पंक्तियाँ मस्तिष्क में कहीं गूंजती रहती हैं....

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

उमंगें उड़ान की और
सपने मचल रहे हैं
शाम की शीतलता के लिए
भोर होते ही जल रहे हैं
हर दिन जिंदा रहने मे
शर्त है बहुत
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.


ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी ....

mridula pradhan said...

bahot achchi lagi.

रचना दीक्षित said...

आचरण हमारा भी
थोडा बदल गया
चेहरे पढ़ पढ़ कर
चेहरा ढल गया
बदल गयी परम्पराएं
रिश्तेदारियाँ निभाने की

जाने कितने ही दिमाग में गड़े मुर्दे उठ खड़े हुए और फिर शुरू हो गयी वही पुरानी कहानी. कितनी खूबसूरती से इतना दर्द पिरोया है एक एक शब्द में कि महसूस भी हो रहा है क्या ख्वाहिश कि है कि "दो चार दिन को मर नहीं सकते " अद्भुत

हरकीरत ' हीर' said...

जीविका बन गयी है
यायावरी का पर्याय
हममे और बनज़ारों मे
फर्क नही राह
काबिलियत मापते हैं
बस एक ही पैमाने से
कोई किसी का हमदर्द नही रहा

बहुत अच्छी कविता सुलभ जी ....आप तो दोनों में सिद्धस्त हैं ....

(फर्क नही राह ...शायद यहाँ रहा लिखना चाहते थे ....)

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

हरकीरत जी,
वर्तनी त्रुटी सुधार के लिए शुक्रिया.

आदेश कुमार पंकज said...

मौनता दे अर्थ ऐसे व्याकरण मिलते नहीं हैं |
प्यार हो जग के लिए अंत : करण मिलते नहीं हैं |
शिलाओं का अकेलापन बहुत रोता अंधेरों में ,
जिनकी छुअन आकारदे दे वह चरण मिलते नहीं हैं |

Abhishek Ojha said...

बढ़िया. इस बार का तो शीर्षक ही खींच लाया.

देवेन्द्र पाण्डेय said...

हर दिन जिंदा रहने मे
खर्च है बहुत
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.
...वाह! बेहतरीन पंक्तियों से कविता की शुरुआत की है आपने. अनूठा व् अच्छा प्रयोग. पूरी कविता बहुत अच्छी है. सच-सच लिख दो तो करार व्यंग्य हो जाता है आजकल..!
..शाम की शीतलता के लिए
भोर होते ही जल रहे हैं ...
..वाह! क्या बात है.
..बधाई.

Satish Saxena said...

सुंदर अभिव्यक्ति !

Smart Indian said...

वाकई दर्द है.

Ra said...

achha nahi hai ye .....haa bahut hi aachha hai ...waakai shaandaar

http://athaah.blogspot.com/

Unknown said...

अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते
मन की बात को शब्द दे दिए

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

क्या ख्याल है!?!
दो चार दिन के लिए मर नहीं सकते?
लेकिन एक सवाल पूछने की हिमाकत कर रहा हूँ, क्या उसके बाद हालात बादल जायेंगे?

दिगम्बर नासवा said...

दर्द और आक्रोश की झलक आ रही है आपकी इस रचना में .. समाज के प्रेती, रिस्टन के प्रति इस व्यवस्था के प्रति .... बहुत ही लाजवाब अभिव्यक्ति है सुलभ जी ....

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

bahut he badhiya sulabh bhai...

Pawan Kumar said...

हर दिन जिंदा रहने मे
खर्च है बहुत
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.
उफ़,........अद्भुत आरम्भ......अंत तक कविता में वही तेवर......सुलभ साब दिल से बधाई स्वीकार करें

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

सुलभ जी, आप त जिन्नगी का हकीकत लिख दिए हैं, एकदम आईना का जइसा , जे झाँकेगा उसको उसी का कहानी दिखाई देगा...

Urmi said...

बहुत बढ़िया और बिल्कुल सठिक लिखा है आपने! सभी को एक न एक दिन मरना ही है और ये बात सौ फीसदी सही है!

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

का बात कहे हैं… आज का महौल का सचाई लिख दिए हैं..

Himanshu Mohan said...

इस रचना ने बाध्य कर दिया तारीफ़ करने को। आप लिखते तो अच्छा हैं ही, गाते भी अच्छा हैं।
बहुत अच्छे!
शुभेच्छु

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

@ हिमान्शु मोहन जी
माफ़ कीजियेगा, मैं गाना गा नहीं पाता, वर्ना आप जैसे स्नेहीजन को जरुर सुनाता.

सतपाल ख़याल said...

अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.
wah!!

सर्वत एम० said...

कविता नहीं सच उकेर दिया ज़िन्दगी. हम में से अधिकांश, जो आजीविका के लिए यायावरी को मजबूर हैं, ऐसे ही जीते हैं. आप ने इधर अपनी आग को काफी तपाया है और हम लोग सोने को कुंदन बनते देख रहे हैं.
एक निवेदन: आप वर्तनी (स्पेलिंग) की अशुद्धियों पर ध्यान नहीं देते. पोस्ट करने पूर्व एक बार यदि नजर मार लें तो यह समस्या भी नहीं रहेगी.

लिंक विदइन

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जिंदगी हसीं है -
"खाने के लिए ज्ञान पचाने के लिए विज्ञान, सोने के लिए फर्श पहनने के लिए आदर्श, जीने के लिए सपने चलने के लिए इरादे, हंसने के लिए दर्द लिखने के लिए यादें... न कोई शिकायत न कोई कमी है, एक शायर की जिंदगी यूँ ही हसीं है... "