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अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्, उदारमनसानां तु वसुधैव कुटुंबकम्

Monday, December 28, 2009

इस जमाने के अन्दर तो जमाने बहुत हैं



अनजान शहर में मिले खजाने बहुत हैं
खेल किस्मत को अभी दिखाने बहुत हैं

हर कदम टूटते हैं सैकडो दिल यहाँ
टूटे बिखरे दिलों के अफ़साने बहुत हैं

कुर्सी के पिछे दौड़कर सभी बावले हुए
इक नाजनीन के देखो दीवाने बहुत हैं

नक़ाब बदल बदल कर जो करते हैं घात
उनको ढुढेंगे कहाँ जिनके ठिकाने बहुत हैं

शायद चलती रहे महफिल देर रात तक
तेरे सामने साकी अभी  पैमाने बहुत हैं

पत्थरों से मुलाक़ात अब रोज़ की बात है
आँखों ने भी बसाए ख्वाब सुहाने बहुत हैं

किस किस की दास्ताँ सुनोगे तुम 'सुलभ'
इस जमाने के अन्दर तो जमाने बहुत हैं

- सुलभ जायसवाल

Saturday, December 26, 2009

करोड़पति कन्या - मेरी पहली हास्य कविता


ये साल भी अब जाने जाने को है. वर्ष २००९ बहुत से रोचक, अद्भूत, जोखिम भरे दिन मुझे दिखा गए. इन सबसे ऊपर कुछ कठोर अनुभवों से साक्षात्कार हुआ. नौकरी, स्वरोजगार और महानगर की आपाधापी में कुछ खोया और बहुत कुछ पाया भी. आज कल बहुत राहत महसूस कर रहा हूँ. पिछले साल और इस साल जून तक आजीविका का संकट गहराया हुआ था. व्यक्तित्व निखारना और सतत संघर्ष करना मुझे शुरू से पसंद है, हर साल के अंत में एक बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में ठोस कार्ययोजना बनाना मेरी प्राथमिकता होती है. दोस्ती, रिश्तेदारी, दुनियादारी और पर्यटन में मैं बहुत मशरूफ रहता हूँ. शायद यह भी एक कारण है धीमे गति से लक्ष्य की और बढ़ना. मगर मैं खुश हूँ मेरे चाहने वाले दिन प्रतिदिन बढ़ रहे हैं. मैं भी संचार के विभिन्न माध्यमों से रिश्तों की उष्मा बनाये रखने की कोशिश करता हूँ. इस साल की उपलब्धि है "सयंमित रह कर कैसे सूझबूझ से निर्णय लेने चाहिए ये सब मुझे सिखने को मिला..." और अपने राज्य बिहार में एक बड़े अस्पताल और एक व्यावसायिक प्रशिक्षण अकादमी की स्थापना हेतु एक समिति से जुड़ गया. मानव ही इश्वर है, और मानव सेवा मेरा धर्म  इसी सूत्र पर जीवन संघर्ष और सफलताओं का दौर चलता रहे. परमेश्वर से कुछ ऐसी ही कृपा चाहता हूँ.





चिटठाजगत  में यूँ तो मैं पिछले साल जुड़ गया था. ब्लोग्वानी में इस साल अगस्त माह में शामिल होकर नियमित ब्लोगरी की. जहाँ जरुरत समझा वहां बहस भी किया.  और आप सभी का भरपूर स्नेह और कुछ संस्थानों से मान सम्मान पाया. चाह तो रहा हूँ की बहुत सारी बाते बता दूँ, लेकिन लम्बी पोस्ट लिखने के पक्ष में नहीं हूँ. आजकल ग़ज़ल सिखने और कहने में जोर है. लेकिन मैं मूलतः हास्य व्यंग्य विधा का कवि  हूँ (क्षमा कीजियेगा जब तक आप मान रहे है तभी तक मैं कवि हूँ ). आज से 9-10 साल पूर्व मैं दैनिक अखबारों और मासिक पत्रिकाओं में रचनाये भेजता था. अधिकांश अस्वीकृत कर लौटाई जाती थी. जिस दिन मैं छपता लौटरी जीतने जैसी ख़ुशी होती...

आज सुनिए मेरी पहली हास्य कविता...(साल 2001 में रचित)

 नयी कमीज पर खुशबू छिड़का
सज धज कर नए जूते पहना

तैयार होकर जैसे ही
मैं निकला घर से बाहर
पिताजी ने रास्ता रोका पास मेरे आकर

मुझसे बोले - बेटा अब तो तू बड़ा हो गया है
कद में मेरे सामने खड़ा हो गया है
अपने भविष्य की चिंता क्यों नहीं करता है
दिनभर
सिर्फ आवारागर्दी करता है
क्या तू तरक्की नहीं चाहता है
यूँ ही घर में बेकार रहना चाहता है
अरे! अपने बाप की इज्ज़त का कुछ तो ख्याल कर
जब पढ़ाई लिखाई छोर दी है
 तो कोई अच्छा काम कर.

और सुन ये लेखन वेखन का चक्कर छोड़ दे
इससे नहीं होगा तेरा भला
जा किसी धंधे में जाकर
हाथ पैर चला.

मैं बोला - पिताजी आप मुझे नाहक डांट रहें हैं
मेरे सुन्दर भाग्य को क्यूँ काट रहे हैं.
आप फिकर मत करिए
मेरा भविष्य है रंगीन
करोडपति बनने में बचे हैं कुछ ही दिन.

पिछले साल कालिज के नववर्ष समारोह में
जब मैंने प्रेमरस से भरा एक गीत गाया था
तब एक करोडपति कन्या का
दिल मुझ पर आया था.

पहली मुलाक़ात से ही कायल है
अब मेरे इश्क में घायल है
बहुत बड़े घर की बेटी है
दिखने में सुन्दर, दिमाग की मोटी है
मैंने भी उसे यह बता दिया
तुम्हे ही जीवन संगिनी बनाऊंगा
यह भरोसा जता दिया

अब बस आपको भी
अपना फ़र्ज़ निभाना है
एक दो चक्कर उसके घर के लगाना है
विवाह पूर्व के लड्डू बांटकर
एक रस्म निभाना है

जल्द ही वो बहु बन कर
घर आपके आएगी
साथ में माल मत्ता
पूरा लाएगी

अपनी किस्मत तो एकदम बुलंद
दिखती है
सब कुछ है हाथ में बना बनाया तैयार
बाईगोड कन्या तो है मेरे सर पर सवार

पिताजी टाइम हो गया
वो इंतज़ार में होगी
उससे मिलने जाना है
नयी फिलम आयी है
सिनेमा भी जाना है.


- सुलभ जायसवाल



Saturday, December 19, 2009

वो हंस दिए हमारी नादानी देखकर - एक कचोटती ग़ज़ल






हैरत में हैं लोग सचबयानी देखकर 
 दो गवाह और झूटी कहानी देखकर  


लिख सजा बेगुनाह को कलम है शर्मशार 
फैसले हुए हैं  कागज़ कानूनी देखकर   


ख्वाहिशों कि उड़ान अभी बाकी है बहुत 
मियाँ घबरा गए ढलती जवानी देखकर 



जाने क्या देखकर जाने क्या सोचकर  
फूल मुरझा गए सख्त निगरानी देखकर  


वहां न कोई भेड़िया था न कोई दरिंदा    
गुड़िया रोई थी चेहरा इंसानी देखकर  


खालिश डिग्री दिखाकर मांगी थी नौकरी
वो हंस दिए हमारी नादानी देखकर 


सुबह चल निकला था घर से प्यासा ही
राहत मिली अब रस्ते में पानी देखकर 
***


मुझे माफ़ कीजिये ! मैं कोई शायर नहीं हूँ 
शे'र पढता हूँ आपकी मेहरबानी देखकर


- सुलभ जायसवाल 'सतरंगी'



Wednesday, December 16, 2009

चित्र कविता - 2 (एक ग़ज़ल)

पिछले दिनों नीरज जी की पोस्ट में यह चित्र देखा था. बहुत कुछ कह रहें है ये सजीव चित्र. इसे देखकर स्वतः ही लेखनी चल पड़ी
हँसते बोलते कहीं खो जाओ ये अच्छा तो नहीं है
अपने मन को बस दुखाओ ये अच्छा तो नहीं है

मैं जानता हूँ मेरी जाँ मैं तुमसे दूर हूँ बहुत
सोचकर यही तुम घबराओ ये अच्छा तो नहीं है

दिल तुम्हार नाजुक है यह मेरा दिल समझता है
याद करके धड़कन बढाओ ये अच्छा तो नहीं है

सफ़र से लौटूंगा जब भी पास तुम्हारे ही आऊंगा
इंतजार में आंसू बहाओ ये अच्छा तो नहीं है

Friday, December 11, 2009

टिप्पणी कीजिये खूब कोई शरारत ना कीजिये - ग़ज़ल


जैसा की आप सभी जानते हैं पिछले एक महीने से अपने प्यारे ब्लॉगजगत में कुछ उलजलूल हरकतें और अनावश्यक बहसे हुई हैं. दुखी होकर मैंने एक Post जारी किया था "शान्ति के लिए यह सन्देश आत्मसात करें " बहुतों ने इसकी सराहना की तो कुछ ने असहमति जताते हुए अपना पक्ष रहा जवाब में मैंने भी यथोचित बहस " मानवता के दुश्मन ब्लोगिंग से दूर रहें." कर मामले को नतीजे पर पहुंचा कर सभी से जिम्मेदार लेखन की अपील की. 

एक खबर सुन पढ़कर आज फिर मर्माहत हो गया हूँ. अब क्या करूँ न चाहते हुए भी आज एक  ग़ज़ल (अपने सतरंगी अंदाज से अलग) कुछ इस तरह कहना पड़  रहा है - 




इजहारे- खुराफात की  ज़हमत ना कीजिये  
खो जाये अमन-चैन ऐसी जुर्रत ना कीजिये  


जब ठेस लगे दिल पर शिकायत दर्ज कीजिये 
बहस कीजिये खुल कर अदावत ना कीजिये 


कलम चलाने के लिए यहाँ मुद्दे भरपूर हैं 
महज दिखावे के वास्ते खिलाफत ना कीजिये 


ये भारत वर्ष है अपना गौरवशाली हिन्दोस्ताँ
जाति-धरम के नाम पर सियासत ना कीजिये



जरुरी नहीं जो दिखता है वो ही लिखता है  
इस्तकबाल लाजिमी है इबादत ना कीजिये 


ब्लॉगरी कोई खेल नहीं बस इतना ख्याल रहे  
टिप्पणी कीजिये खूब कोई शरारत ना कीजिये 

- सुलभ जायसवाल 'सतरंगी'  

Sunday, December 6, 2009

राह चलते एक छोटी सी ग़ज़ल




आंधियां जब तेज रही थी
टहनियों में खलबली थी

दरख़्त वही जगह पर रहे
जड़े जिनकी खूब गहरी थी

खुद को घायल पाया हमने
हुस्न से जब नज़र मिली थी

एक मुलाक़ात में दिल दे बैठे
नाजनीन वो  बड़ी हसीं थी 

सुबह तक डूबा रहा सूरज
जाड़े की एक रात बड़ी थी

सब ने  अपने  होश गंवाये 
ऐसी तो उसकी जादूगरी थी 

तंग गलियों से जब मैं निकला
देखा तब  एक सड़क खुली थी


- सुलभ जायसवाल 'सतरंगी' 
(लेखक को gazal बहर की जानकारी का अभाव है)

लिंक विदइन

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जिंदगी हसीं है -
"खाने के लिए ज्ञान पचाने के लिए विज्ञान, सोने के लिए फर्श पहनने के लिए आदर्श, जीने के लिए सपने चलने के लिए इरादे, हंसने के लिए दर्द लिखने के लिए यादें... न कोई शिकायत न कोई कमी है, एक शायर की जिंदगी यूँ ही हसीं है... "