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अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्, उदारमनसानां तु वसुधैव कुटुंबकम्

Friday, May 28, 2010

शुरू करो उपवास रे जोगी



जब तक चले श्वास रे जोगी
रहना नज़र के पास रे जोगी

बंधाकर सबको आस रे जोगी 

कौन चला  बनवास रे जोगी

हर सू फ़र्ज़ से सुरभित रहे

घर दफ्तर न्यास रे जोगी

सदियों तक ना प्यास जगे

यूँ बुझाओ प्यास रे जोगी

टूटे हिम्मत फिर से जुड़ेंगे

खोना मत विश्वास रे जोगी

जो भी पहना दिखता सुन्दर

तहजीब का लिबास रे जोगी

वही  पुराने  भाषण मुद्दे
कुछ भी नहीं ख़ास रे जोगी

प्याज-चीनी सब महंगा है
शुरू करो उपवास रे जोगी

-सुलभ

Friday, May 21, 2010

नौकरी (लघुकथा - सुलभ)

"अंकल आ गए... अंकल आ गए... " घर पहुँचते ही पांच वर्षीय भतीजा सोनू ख़ुशी से चहक उठा. सोनू के प्यारे अंकल रमन ने भी सोनू को गोद में उठाकर अपने कमरे में ले आए और पुचकारते हुए कहा "हाँ ! तुम्हारे अंकल आ गए और तुम्हारे लिए एक खिलौना लाये हैं... ये देखो सायकिल"  खिलौना पाकर सोनू बहुत खुश हुआ. लेकिन तुरंत बोल उठा "अंकल ये तो छोटा है मैं इसे कैसे चलाऊंगा."
"अरे सोनू अभी तुम भी तो छोटे हो, थोड़े और बड़े हो जाओगे तो मैं तुम्हे सचमुच की साइकिल ला दूंगा. फिर मेरा सोनू बेटा, साइकिल से स्कूल जाएगा. है न." रमन ने हँसते हुए उसके सर पे हाथ फेरे.  "अब तो मुझे नौकरी भी मिल गयी है कुछ ही दिनों में मैं दुसरे शहर चला जाऊँगा. फिर तुम मेरे इस कमरे में ही खेलना...पढना... और सोना.. ठीक है"  रमन ने मुस्कराते हुए कहा. अभी उठ कर फ्रेश होने के लिए उसने तौलिया उठाया ही था, की आवाज आई. "अंकल... पर पापा तो मम्मी से कह रहे थे की जब रमन नौकरी के लिए दुसरे शहर चला जाएगा तब हम इस कमरे को किराए पर लगा देंगे...कुछ पैसे आ जायेंगे हाथ में"   मासूम भतीजे के मुंह से यह बात सुन, रमन थोड़ी देर के लिए वहीं ठूँठ सा खड़ा रह गया. 



Saturday, May 1, 2010

दो चार दिनों के लिए मर नही सकते...!







र दिन जिंदा रहने मे
खर्च है बहुत
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.


जीविका बन गयी है
यायावरी का पर्याय
हममे और बनज़ारों मे
फर्क नही राह
काबिलियत मापते हैं
बस एक ही पैमाने से
कोई किसी का हमदर्द नही रहा

उमंगें उड़ान की और
सपने मचल रहे हैं
शाम की शीतलता के लिए
भोर होते ही जल रहे हैं
हर दिन जिंदा रहने मे
शर्त है बहुत
अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते.

आचरण हमारा भी
थोडा बदल गया
चेहरे पढ़ पढ़ कर
चेहरा ढल गया
बदल गयी परम्पराएं
रिश्तेदारियाँ निभाने की
अपनी शैली मे कुछ
हम कर नही सकते
हर दिन जिन्दा रहने मे
दर्द है बहुत
और अफ़सोस कि
दो चार दिनों के लिए
मर नही सकते !!

लिंक विदइन

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जिंदगी हसीं है -
"खाने के लिए ज्ञान पचाने के लिए विज्ञान, सोने के लिए फर्श पहनने के लिए आदर्श, जीने के लिए सपने चलने के लिए इरादे, हंसने के लिए दर्द लिखने के लिए यादें... न कोई शिकायत न कोई कमी है, एक शायर की जिंदगी यूँ ही हसीं है... "