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अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्, उदारमनसानां तु वसुधैव कुटुंबकम्

Friday, December 21, 2012

न जाने नया साल क्या गुल खिलाये


ये दिल जब भी टूटे न आवाज़ आये 
यूँ ही दिल ये रस्मे मोहब्बत निभाये 

वो भी साथ बैठे हँसे और हंसाये 
कोई जाके रूठे हुए को  मनाये 

मेरी दास्ताने वफा बस यही है 
युगों से खड़ा हूँ मैं पलकें बिछाये 

न पूछो कभी ज़ात उसकी जो तुमको 
कहीं तपते सहरा में पानी पिलाये 

खलल नींद में बहरों की कब है पड़ता 
कोई चीख के शोर कितना मचाये 

मेरे सपनो की राह में मुश्किलें हैं 
न जाने नया साल क्या गुल खिलाये 
- सुलभ
(नोट: सुबीर संवाद सेवा के मंच से तरही ग़ज़ल )

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जिंदगी हसीं है -
"खाने के लिए ज्ञान पचाने के लिए विज्ञान, सोने के लिए फर्श पहनने के लिए आदर्श, जीने के लिए सपने चलने के लिए इरादे, हंसने के लिए दर्द लिखने के लिए यादें... न कोई शिकायत न कोई कमी है, एक शायर की जिंदगी यूँ ही हसीं है... "