"हम मानवता के रक्षक हैं."
मैंने यह पोस्ट सिर्फ इसलिए लगाई है की ब्लॉग जगत में (नित्य बढ़ते इन्टरनेट ज्ञान कोष में) ज्यादा समय हम अपना ज्ञानवर्धक आलेख(ऐतिहासिक, भोगोलिक, वैज्ञानिक, धार्मिक कुछ भी हो सकता है) पढने लिखने पर व्यतीत करें। साथ ही भाषा सुधार, साहित्य, हास्य-विनोद, मनोरंजन में भी बिताएं. ऐसा इसलिए की ब्लोगिंग कोई खेल नहीं है. मेरे अधिकाँश ब्लोगर मित्र भी ऐसा ही चाहते हैं. और तभी मैं प्रेरित हुआ ऐसी पोस्ट लगाने पर. ये तो मेरी बात हुई.
अब टिप्पणी में किसी ने मुझे कुछ प्रश्नों के उत्तर मांगे है। प्रश्न और उत्तर दोने लम्बे हैं इसलिए न चाहते हुए भी मुझे पुनः: पोस्ट लगाना पर रहा है. जबकि आज की शाम के लिए एक ग़ज़ल शेडूलड है. खैर प्रश्नों को देखें...
1) निरर्थक बहस - यह कैसे तय होगा?
2) धर्म विरोधी - यदि कोई लगातार आपके धर्म को लेकर अनर्गल प्रचार करे, तब कब तक टिप्पणी नहीं करेंगे? कोई समय सीमा?
3) अभद्र, अश्लील - ये कौन तय करेगा कि क्या अभद्र है और क्या अश्लील?
4) रोषपूर्ण भाषा, विचार, वक्तव्य - इसका भी कोई मानक पैमाना नहीं है।
"तटस्थ" रहना कुछ समय के लिये तो ठीक है, लेकिन इतिहास ऐसे लोगों के अपराध भी गिनता है… कि उन्होंने "वक्त" पड़ने पर तटस्थ रहकर खुद का और समाज का कितना नुकसान किया है।
एक अदना सा लेखक हूँ सरल उत्तर दे सकता हूँ - (माफ़ कीजियेगा तर्कपूर्ण, रोष पूर्ण, अभद्र और अश्लील उत्तर देना आज तक किसी ने मुझको सिखाया ही नहीं. हिन्दुस्तान के तीन स्कूलों में पढ़ चुका हूँ. पहला सरस्वती विद्या मंदिर तीसरी कक्षा तक, दुसरा एक पब्लिक स्कूल सातवीं कक्षा तक, तीसरा एक सरकारी स्कूल 12वी तक. तीनो ही आज के पिछड़े राज्य बिहार से. सुना था १९७० से पहले बिहार स्वर्ण प्रदेश था. मैं तो अस्सी के बाद जन्मा हूँ. )
1) निरर्थक बहस - यह कैसे तय होगा?
- यह कभी कोई व्यक्ति तय नहीं कर सकता. इसलिए निरर्थक बहस होता रहेगा. अपने विवेक के अनुसार जिस व्यक्ति को जैसा महसूस हो वो वैसा ही करेगा. अगर निरर्थक लगेगा तो तटस्थ हो जायेगा, और सार्थक लगेगा तो बहस जारी रहेगा. अनंतकाल तक जारी रह सकता है क्योंकि हमारे आप जैसे मनीषियों के पास तर्कों/कुतर्कों का अक्षय भण्डार है. और इसी दिव्य मारक शस्त्र से किसी भी बहस/मुद्दे (सार्थक/निरर्थ कुछ भी..क्योंकि तय नहीं है..?) को अनंत आकाश तक उठाया जा सकता है.
2) धर्म विरोधी - यदि कोई लगातार आपके धर्म को लेकर अनर्गल प्रचार करे, तब कब तक टिप्पणी नहीं करेंगे? कोई समय सीमा?
- धर्म निहायत ही निजी मामला है. फिर भी यदि कोई आस्था के प्रतीकों (देवालयों, मंदिर, मस्जिद गिरजा घर इत्यादि / शास्त्रों, गीता, पुराण, कुरआन इत्यादि / धरोहरों जातीय या धार्मिक निशानिया, दस्तूर, परंपरा, प्रथा, रिवाज इत्यादि) पर प्रहार करता है तो यह धर्म निरपेक्ष राष्ट्र में अपराध की श्रेणी में आता है. इसका प्रतिकार आवश्यक है. और सजा का भी प्रावधान होना चाहिए.
3) अभद्र, अश्लील - ये कौन तय करेगा कि क्या अभद्र है और क्या अश्लील?
यहाँ कोई मठाधीश तो है नहीं जो यह तय करेगा फिर भी मैं यही कहूँगा इन्टरनेट सार्वजनिक मंच है. सीधे सीधे अभद्र या अश्लील कहने से पहले दायरे सीमित कर ले की किसे कहा जा रहा है और क्यों कहा जा रहा है. क्योंकि आपके घर में, बच्चे, महिलायें, बुजुर्ग सभी साथ रहते हैं. इस तरह के कार्य. बंद दरवाजे में, मेरा मतलब पासवर्ड प्रोटेक्टेड पृष्ठों पर खुल कर कर सकते हैं. कोई मनाही नहीं है.
4) रोषपूर्ण भाषा, विचार, वक्तव्य - इसका भी कोई मानक पैमाना नहीं है।
- आज तक वैज्ञानिक, मानव और मानव दिमाग का कोई पैमाना नहीं ढूंड पाए तो किसी के विचार या वक्तव्य का पैमाने के बारे में सोचना ही बेमानी है. रोषपूर्ण भाषा से मेरा मतलब था तीव्रता उत्पन्न करने वाली आवाजों से. जब आप मोहल्ले में किसी से झगडा करते हैं तो अक्सर अडोस पड़ोस के लोग कहते हैं. इस तरह की भाषा इस्तेमाल मत करो. हाँ वैचारिक और जरुरी वाद विवाद या लड़ाई में भी ऐसा कहा जा सकता है. क्योंकि बच्चओं पर गलत असर पर सकता है. ऐसा मैं नहीं हमारा संविधान / हमारा समाज / हमारी सरकार भी कहती है. ब्लॉग जगत अपना समाज जैसा ही है. इसमें शान्ति बनाने की बात कहना या निवेदन करना कोई अपराध नहीं एक युक्तिसंगत पहल है. हमारे सरकारी सदन में भी स्पीकर महोदय ऐसा निवेदन जरुरत पड़ने पर हमारे सरकारी सदस्यों से करते रहते हैं.
"तटस्थ" रहना कुछ समय के लिये तो ठीक है, लेकिन इतिहास ऐसे लोगों के अपराध भी गिनता है… कि उन्होंने "वक्त" पड़ने पर तटस्थ रहकर खुद का और समाज का कितना नुकसान किया है। अगर ये सवाल है (या नही) तो मेरा जवाब ये है ....
उपरोक्त कथन से मैं पूर्णतया सहमत हूँ. राष्ट्रकवी दिनकर जी मेरे आदर्श व्यक्तियों में से एक है. तो आप समझ सकते हैं की मैं भी एक राष्ट्रभक्त हूँ और हिन्दू(सनातन संस्कार में रहने के कारण) वसुधैव कुटुम्बकम, सर्व धर्म समभाव की नीतिओं का अनुसरंकर्ता भी हूँ. एक सामाजिक, विचारक और संवेदनशील प्राणी होने के नाते ही मैंने ब्लॉग लेखन में कदम रखना उचित समझा. सामाजिक समरसता कायम रखना मेरी प्राथमिकता इसलिए है की मैं बाधारहित अधिकाधिक ज्ञानार्जन और सामूहिक मनोरंजन चाहता हूँ. तनाव भरे वातावरण में यह कार्य आसान नहीं रह जाता.
जरुरत पड़ने पर मैं भी जवाब देता हूँ. (बहुत जरुरी जब लगता है. व्यर्थ में मौके नहीं ढूंडता रहता हूँ किसी को भी उल्टा सीधा जवाब देने के लिए.) आज ही एक टिपण्णी मैंने अनिल पुसदकर जी के समर्थन में किया था. लेकिन वहां विषय धार्मिक या जातीय न होकर. अध्यात्मिक/मानवीय (आस्तिक और नास्तिक) टाइप का था.
लिंक यहाँ है. https://www.blogger.com/comment.g?blogID=1364552172608471144&postID=6329419992828844155
साम्रदायिक सद्भाव बिगारने वालों को जवाब मैं भी देता हूँ. एक हिन्दू होने की वजह से नहीं. बल्कि इस धर्म निरपेक्ष देश का नागरिक होने के नाते. हाँ अंतर इतना ही है. की मैं शांतिप्रिय स्वभाव होने के वजह से एक बार टिप्पणी करता हूँ. किसी अन्यब्लोगर नागरिक के पास समय ज्यादा होता है सो वे टिपण्णी और पोस्ट की बौछार करते रहते हैं.
अभी हाल ही में कहीं गलत महसूस होने पर एक टिपण्णी मैना कुछ ऐसा किया था.. यहाँ फिर से दोहरा रहा हूँ..
"इस मामले पर पहले भी मैंने एक टिपण्णी किया था. और मुझे फलाना जी ने एक संतोषजनक जवाब दिया था. जिसके मूल में यही पता चलता है की हमे (सीधे सादे लोग को) अक्सर चालु राजनेताओं और कुछ अवैज्ञानिक सोच रखने वाले उलेमाओं द्वारा मुसलसल(बार-बार) परेशान किया जा रहा हैं. अतः: विरोध उन असामाजिक तत्वों का अनिवार्य है जिनको हमने अपना नेता बना रखा है. यहाँ ब्लॉग पर तीव्र बहस करने की कोई जरुरत नहीं है. व्यर्थ के वाद-विवाद देखकर फिर दुखी हो आया हूँ.
इस ब्लॉग का टाइटिल पढ़कर मैं कुछ सिखने की जिज्ञासा से यहाँ आया था. यहाँ अन्दर देखता हूँ तो पता चलता है की उन्वान कुछ और है और मजमून दिशाहीन है. शायद हिंदी ब्लॉग जगत का स्वर्णकाल समाप्त हो गया है. ये सब T.R.P. का मामला लग रहा है. हमलोग पहले से ही टेलीविजन मीडिया वाले से परेशान हो चुके थे 'वे T.R.P. और नंबर 1 की दौड़ में कुछ भी पडोसने लग गए है.' अब ब्लॉग जगत में भी यही होने लगा है.
आप कहते हैं की "कुछ लोगों को उन्ही की भाषा में सिखाना जरुरी है" यह जानते हुए की वो सीखना नहीं चाहते. नफरत की भाषा से अगर सफलता मिलने की गुंजाईश है तो लगे रहिये. अपना अनुभव यही कहता है की सिरफ नुक्सान और हाहाकार ही मिलेगा. इस तुफैल में जो जरुरी बहस के मुद्दे हैं, वे कहीं गुम सी लगती है. उन पन्नों और कड़ियों को हाईलाइट करने की जरुरत है ना की कीबोर्ड पर व्यर्थ ही अपनी ऊर्जा गंवाने की.
यदि आपलोगों (मुआफी चाहूँगा किसी को जानता नहीं हूँ...) की यही मंशा(यही बहस, T.R.P. और नंबर 1 वाला) है तो ठीक है आप लोग लगे रहिये. मैं आईंदा इस ब्लॉग पर नहीं आऊंगा. जहाँ मेरी आत्मा आहत हो और जुबान में जहर फैलने का खतरा हो, उस स्थान से दूर रहने में ही भलाई है...."
नीली स्याही से लिखी उपरोक्त बातें मैं पहले ही कहीं और टिप्पणी के माध्यम से कह चूका हूँ. जिनको अक्ल है वो उनको सन्देश देने की जरुरत नहीं है. जो समझना नहीं चाहते हैं. उनको बक बकाने दीजिये. जब कोई अपने परोस में रहने वाले गुंडों को सुधार नहीं पा रहा है तो यहाँ पढ़े लिखे टेक्निकल खिलाड़ियों को कौन समझा सकता है. (छद्म नाम और चेहरे वाले से ब्लोगिंग में आप ख़ाक लड़ाई जीत पाएंगे). इसके लिए कोई साइबर कानून हो सकता है. कोई ब्लोगिंग में मानवता को ताक पे रखकर नेता बनना चाहता है तो बने. मूर्खों की फ़ौज ही उनको follow करेगी.
सिर्फ इसलिए हम तटस्थ रहना चाहते हैं और हमने "मानवता के रक्षक" वाला सन्देश बगैर किसी बेक लिंक के टीम ब्लोगवाणी को समर्पित करते हुए कल रात्री को दिया था.
कोई गलत होता है तो उसके लिए किसी भी समाज देश में क़ानून है और अदालत है. हमारे हाथ में कोई लाइसेंस नहीं है किसी को सुधारने का. हाँ एक चीज़ है मेरे पास वो है- समाज हित में सुन्दर, ज्ञानवर्धक और मनोरंजक पोस्ट जिसे मैं सप्ताह में दो एक बार अपने ब्लॉग पर जरुर टांग सकता हूँ.
जय हिंद.
---
अगली पोस्ट में मिलूँगा कोई ग़ज़ल या कविता लेकर. वही पुरानी सतरंगी वाली छवि में. अपने अजीज पाठकों को हुए व्यवधान के लिए पुनः क्षमा मांगता हूँ.
आपका ब्लोगर सहयात्री -
सुलभ
निचे की गई टिप्पणी का जवाब.......................
@प्रवीण शाह जी,
आपने मेरी साधारण सी बात को समझने का प्रयास किया. इस के लिए हमारा धन्यवाद स्वीकार करें.
आप कहते हैं, "ब्लॉगिंग का फायदा यही है कि यहां कोई संपादक नहीं है... अत: मन के अंदर चल रही बातें भी आ जाती हैं बाहर."
मैं कहता हूँ यहाँ ब्लोगर लेखक ही सम्पादक है और प्रकाशक भी. ये तो और अभी अच्छी बात है जब आप अपने मन के भाव को लिखते हैं, तो उसे तबतक कोई सुन(पढ़) नहीं सकता जब तक की आप उसे प्रकाशित न कर दे. यहाँ तो अच्छे मौके हैं अपनी भाव (मन में घुमरते विचारों) को पढ़ कर निरक्षण करने का, अपनी लिखी हुई भाषा और कथ्य कितना सटीक है, इसे समझने का . जब की गलियों और चौराहों पर आपको यह मौका नहीं मिलता. एक बार शब्द जबान से निकल गए तो निकल गए. भले ही आप कितना ही उत्साहित और क्रोधित क्यों न हो ब्लॉग पोस्ट को प्रकाशित करने के वक़्त पुरे होश में होते हैं.
एन, यही बात मैं पूछना चाहता हूँ की जब आप होश में होते हैं, एक लेखक की भूमिका में एक एक शब्द और वाक्य शुचिता से लिखते हैं, वर्तनी, व्याकरण का भी ख्याल रखते हैं. फिर सन्देश गलत क्यूँ हो जाता है? असामाजिक, असभ्य, अश्लील क्यों हो जाता है? दुसरे को नीचा दिखाने वाला क्यों हो जाता है? साफ़ जाहिर है की कुछ लोग जानबूझ कर अपनी लेखकीय प्रतिभा रूपी छेनी और तर्कों(कुतर्कों) के भार रूपी हथोड़े से व्यवस्था रूपी सुन्दर दीवार को गिराना चाहते हैं. ऐसा करना उन्हें रस (मजा) देता है. ऐसे ही कृत्यों पर सभ्य समाज को शर्मिंदगी महसूस होती है. चाहे वो अपना गाँव चौपाल हो या तकनीक से सज्जित अपना वैश्विक गाँव चौपाल (ब्लॉग जगत) हो. नुक्सान पुरे समाज का ही होता है. व्यक्तिगत और जातिगत बहस किसी से फोन, चैटिंग या ईमेल पर भी की जा सकती है. ओपन ब्लॉग पर ही क्यों..??
यहाँ कोई विवाद नहीं है, स्वस्थ ब्लोगिंग (लेखन) के जरिये कोई भी बहस नतीजे पर पहुँच सकती है. धर्म-जाति विरोधी,व्यक्तिगत आक्षेप या अभद्र अश्लील रोषपूर्ण भाषा प्रयोग करने से कुछ भी हाथ नहीं आने वाला. हाँ दंगे भड़कने का खतरा जरुर रहेगा.
आशा है इस प्रकरण पर अब कोई वाद विवाद नहीं होने चाहिए.
मैंने यह पोस्ट सिर्फ इसलिए लगाई है की ब्लॉग जगत में (नित्य बढ़ते इन्टरनेट ज्ञान कोष में) ज्यादा समय हम अपना ज्ञानवर्धक आलेख(ऐतिहासिक, भोगोलिक, वैज्ञानिक, धार्मिक कुछ भी हो सकता है) पढने लिखने पर व्यतीत करें। साथ ही भाषा सुधार, साहित्य, हास्य-विनोद, मनोरंजन में भी बिताएं. ऐसा इसलिए की ब्लोगिंग कोई खेल नहीं है. मेरे अधिकाँश ब्लोगर मित्र भी ऐसा ही चाहते हैं. और तभी मैं प्रेरित हुआ ऐसी पोस्ट लगाने पर. ये तो मेरी बात हुई.
अब टिप्पणी में किसी ने मुझे कुछ प्रश्नों के उत्तर मांगे है। प्रश्न और उत्तर दोने लम्बे हैं इसलिए न चाहते हुए भी मुझे पुनः: पोस्ट लगाना पर रहा है. जबकि आज की शाम के लिए एक ग़ज़ल शेडूलड है. खैर प्रश्नों को देखें...
1) निरर्थक बहस - यह कैसे तय होगा?
2) धर्म विरोधी - यदि कोई लगातार आपके धर्म को लेकर अनर्गल प्रचार करे, तब कब तक टिप्पणी नहीं करेंगे? कोई समय सीमा?
3) अभद्र, अश्लील - ये कौन तय करेगा कि क्या अभद्र है और क्या अश्लील?
4) रोषपूर्ण भाषा, विचार, वक्तव्य - इसका भी कोई मानक पैमाना नहीं है।
"तटस्थ" रहना कुछ समय के लिये तो ठीक है, लेकिन इतिहास ऐसे लोगों के अपराध भी गिनता है… कि उन्होंने "वक्त" पड़ने पर तटस्थ रहकर खुद का और समाज का कितना नुकसान किया है।
एक अदना सा लेखक हूँ सरल उत्तर दे सकता हूँ - (माफ़ कीजियेगा तर्कपूर्ण, रोष पूर्ण, अभद्र और अश्लील उत्तर देना आज तक किसी ने मुझको सिखाया ही नहीं. हिन्दुस्तान के तीन स्कूलों में पढ़ चुका हूँ. पहला सरस्वती विद्या मंदिर तीसरी कक्षा तक, दुसरा एक पब्लिक स्कूल सातवीं कक्षा तक, तीसरा एक सरकारी स्कूल 12वी तक. तीनो ही आज के पिछड़े राज्य बिहार से. सुना था १९७० से पहले बिहार स्वर्ण प्रदेश था. मैं तो अस्सी के बाद जन्मा हूँ. )
1) निरर्थक बहस - यह कैसे तय होगा?
- यह कभी कोई व्यक्ति तय नहीं कर सकता. इसलिए निरर्थक बहस होता रहेगा. अपने विवेक के अनुसार जिस व्यक्ति को जैसा महसूस हो वो वैसा ही करेगा. अगर निरर्थक लगेगा तो तटस्थ हो जायेगा, और सार्थक लगेगा तो बहस जारी रहेगा. अनंतकाल तक जारी रह सकता है क्योंकि हमारे आप जैसे मनीषियों के पास तर्कों/कुतर्कों का अक्षय भण्डार है. और इसी दिव्य मारक शस्त्र से किसी भी बहस/मुद्दे (सार्थक/निरर्थ कुछ भी..क्योंकि तय नहीं है..?) को अनंत आकाश तक उठाया जा सकता है.
2) धर्म विरोधी - यदि कोई लगातार आपके धर्म को लेकर अनर्गल प्रचार करे, तब कब तक टिप्पणी नहीं करेंगे? कोई समय सीमा?
- धर्म निहायत ही निजी मामला है. फिर भी यदि कोई आस्था के प्रतीकों (देवालयों, मंदिर, मस्जिद गिरजा घर इत्यादि / शास्त्रों, गीता, पुराण, कुरआन इत्यादि / धरोहरों जातीय या धार्मिक निशानिया, दस्तूर, परंपरा, प्रथा, रिवाज इत्यादि) पर प्रहार करता है तो यह धर्म निरपेक्ष राष्ट्र में अपराध की श्रेणी में आता है. इसका प्रतिकार आवश्यक है. और सजा का भी प्रावधान होना चाहिए.
3) अभद्र, अश्लील - ये कौन तय करेगा कि क्या अभद्र है और क्या अश्लील?
यहाँ कोई मठाधीश तो है नहीं जो यह तय करेगा फिर भी मैं यही कहूँगा इन्टरनेट सार्वजनिक मंच है. सीधे सीधे अभद्र या अश्लील कहने से पहले दायरे सीमित कर ले की किसे कहा जा रहा है और क्यों कहा जा रहा है. क्योंकि आपके घर में, बच्चे, महिलायें, बुजुर्ग सभी साथ रहते हैं. इस तरह के कार्य. बंद दरवाजे में, मेरा मतलब पासवर्ड प्रोटेक्टेड पृष्ठों पर खुल कर कर सकते हैं. कोई मनाही नहीं है.
4) रोषपूर्ण भाषा, विचार, वक्तव्य - इसका भी कोई मानक पैमाना नहीं है।
- आज तक वैज्ञानिक, मानव और मानव दिमाग का कोई पैमाना नहीं ढूंड पाए तो किसी के विचार या वक्तव्य का पैमाने के बारे में सोचना ही बेमानी है. रोषपूर्ण भाषा से मेरा मतलब था तीव्रता उत्पन्न करने वाली आवाजों से. जब आप मोहल्ले में किसी से झगडा करते हैं तो अक्सर अडोस पड़ोस के लोग कहते हैं. इस तरह की भाषा इस्तेमाल मत करो. हाँ वैचारिक और जरुरी वाद विवाद या लड़ाई में भी ऐसा कहा जा सकता है. क्योंकि बच्चओं पर गलत असर पर सकता है. ऐसा मैं नहीं हमारा संविधान / हमारा समाज / हमारी सरकार भी कहती है. ब्लॉग जगत अपना समाज जैसा ही है. इसमें शान्ति बनाने की बात कहना या निवेदन करना कोई अपराध नहीं एक युक्तिसंगत पहल है. हमारे सरकारी सदन में भी स्पीकर महोदय ऐसा निवेदन जरुरत पड़ने पर हमारे सरकारी सदस्यों से करते रहते हैं.
"तटस्थ" रहना कुछ समय के लिये तो ठीक है, लेकिन इतिहास ऐसे लोगों के अपराध भी गिनता है… कि उन्होंने "वक्त" पड़ने पर तटस्थ रहकर खुद का और समाज का कितना नुकसान किया है। अगर ये सवाल है (या नही) तो मेरा जवाब ये है ....
उपरोक्त कथन से मैं पूर्णतया सहमत हूँ. राष्ट्रकवी दिनकर जी मेरे आदर्श व्यक्तियों में से एक है. तो आप समझ सकते हैं की मैं भी एक राष्ट्रभक्त हूँ और हिन्दू(सनातन संस्कार में रहने के कारण) वसुधैव कुटुम्बकम, सर्व धर्म समभाव की नीतिओं का अनुसरंकर्ता भी हूँ. एक सामाजिक, विचारक और संवेदनशील प्राणी होने के नाते ही मैंने ब्लॉग लेखन में कदम रखना उचित समझा. सामाजिक समरसता कायम रखना मेरी प्राथमिकता इसलिए है की मैं बाधारहित अधिकाधिक ज्ञानार्जन और सामूहिक मनोरंजन चाहता हूँ. तनाव भरे वातावरण में यह कार्य आसान नहीं रह जाता.
जरुरत पड़ने पर मैं भी जवाब देता हूँ. (बहुत जरुरी जब लगता है. व्यर्थ में मौके नहीं ढूंडता रहता हूँ किसी को भी उल्टा सीधा जवाब देने के लिए.) आज ही एक टिपण्णी मैंने अनिल पुसदकर जी के समर्थन में किया था. लेकिन वहां विषय धार्मिक या जातीय न होकर. अध्यात्मिक/मानवीय (आस्तिक और नास्तिक) टाइप का था.
लिंक यहाँ है. https://www.blogger.com/comment.g?blogID=1364552172608471144&postID=6329419992828844155
साम्रदायिक सद्भाव बिगारने वालों को जवाब मैं भी देता हूँ. एक हिन्दू होने की वजह से नहीं. बल्कि इस धर्म निरपेक्ष देश का नागरिक होने के नाते. हाँ अंतर इतना ही है. की मैं शांतिप्रिय स्वभाव होने के वजह से एक बार टिप्पणी करता हूँ. किसी अन्यब्लोगर नागरिक के पास समय ज्यादा होता है सो वे टिपण्णी और पोस्ट की बौछार करते रहते हैं.
अभी हाल ही में कहीं गलत महसूस होने पर एक टिपण्णी मैना कुछ ऐसा किया था.. यहाँ फिर से दोहरा रहा हूँ..
"इस मामले पर पहले भी मैंने एक टिपण्णी किया था. और मुझे फलाना जी ने एक संतोषजनक जवाब दिया था. जिसके मूल में यही पता चलता है की हमे (सीधे सादे लोग को) अक्सर चालु राजनेताओं और कुछ अवैज्ञानिक सोच रखने वाले उलेमाओं द्वारा मुसलसल(बार-बार) परेशान किया जा रहा हैं. अतः: विरोध उन असामाजिक तत्वों का अनिवार्य है जिनको हमने अपना नेता बना रखा है. यहाँ ब्लॉग पर तीव्र बहस करने की कोई जरुरत नहीं है. व्यर्थ के वाद-विवाद देखकर फिर दुखी हो आया हूँ.
इस ब्लॉग का टाइटिल पढ़कर मैं कुछ सिखने की जिज्ञासा से यहाँ आया था. यहाँ अन्दर देखता हूँ तो पता चलता है की उन्वान कुछ और है और मजमून दिशाहीन है. शायद हिंदी ब्लॉग जगत का स्वर्णकाल समाप्त हो गया है. ये सब T.R.P. का मामला लग रहा है. हमलोग पहले से ही टेलीविजन मीडिया वाले से परेशान हो चुके थे 'वे T.R.P. और नंबर 1 की दौड़ में कुछ भी पडोसने लग गए है.' अब ब्लॉग जगत में भी यही होने लगा है.
आप कहते हैं की "कुछ लोगों को उन्ही की भाषा में सिखाना जरुरी है" यह जानते हुए की वो सीखना नहीं चाहते. नफरत की भाषा से अगर सफलता मिलने की गुंजाईश है तो लगे रहिये. अपना अनुभव यही कहता है की सिरफ नुक्सान और हाहाकार ही मिलेगा. इस तुफैल में जो जरुरी बहस के मुद्दे हैं, वे कहीं गुम सी लगती है. उन पन्नों और कड़ियों को हाईलाइट करने की जरुरत है ना की कीबोर्ड पर व्यर्थ ही अपनी ऊर्जा गंवाने की.
यदि आपलोगों (मुआफी चाहूँगा किसी को जानता नहीं हूँ...) की यही मंशा(यही बहस, T.R.P. और नंबर 1 वाला) है तो ठीक है आप लोग लगे रहिये. मैं आईंदा इस ब्लॉग पर नहीं आऊंगा. जहाँ मेरी आत्मा आहत हो और जुबान में जहर फैलने का खतरा हो, उस स्थान से दूर रहने में ही भलाई है...."
नीली स्याही से लिखी उपरोक्त बातें मैं पहले ही कहीं और टिप्पणी के माध्यम से कह चूका हूँ. जिनको अक्ल है वो उनको सन्देश देने की जरुरत नहीं है. जो समझना नहीं चाहते हैं. उनको बक बकाने दीजिये. जब कोई अपने परोस में रहने वाले गुंडों को सुधार नहीं पा रहा है तो यहाँ पढ़े लिखे टेक्निकल खिलाड़ियों को कौन समझा सकता है. (छद्म नाम और चेहरे वाले से ब्लोगिंग में आप ख़ाक लड़ाई जीत पाएंगे). इसके लिए कोई साइबर कानून हो सकता है. कोई ब्लोगिंग में मानवता को ताक पे रखकर नेता बनना चाहता है तो बने. मूर्खों की फ़ौज ही उनको follow करेगी.
सिर्फ इसलिए हम तटस्थ रहना चाहते हैं और हमने "मानवता के रक्षक" वाला सन्देश बगैर किसी बेक लिंक के टीम ब्लोगवाणी को समर्पित करते हुए कल रात्री को दिया था.
कोई गलत होता है तो उसके लिए किसी भी समाज देश में क़ानून है और अदालत है. हमारे हाथ में कोई लाइसेंस नहीं है किसी को सुधारने का. हाँ एक चीज़ है मेरे पास वो है- समाज हित में सुन्दर, ज्ञानवर्धक और मनोरंजक पोस्ट जिसे मैं सप्ताह में दो एक बार अपने ब्लॉग पर जरुर टांग सकता हूँ.
जय हिंद.
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अगली पोस्ट में मिलूँगा कोई ग़ज़ल या कविता लेकर. वही पुरानी सतरंगी वाली छवि में. अपने अजीज पाठकों को हुए व्यवधान के लिए पुनः क्षमा मांगता हूँ.
आपका ब्लोगर सहयात्री -
सुलभ
निचे की गई टिप्पणी का जवाब.......................
@प्रवीण शाह जी,
आपने मेरी साधारण सी बात को समझने का प्रयास किया. इस के लिए हमारा धन्यवाद स्वीकार करें.
आप कहते हैं, "ब्लॉगिंग का फायदा यही है कि यहां कोई संपादक नहीं है... अत: मन के अंदर चल रही बातें भी आ जाती हैं बाहर."
मैं कहता हूँ यहाँ ब्लोगर लेखक ही सम्पादक है और प्रकाशक भी. ये तो और अभी अच्छी बात है जब आप अपने मन के भाव को लिखते हैं, तो उसे तबतक कोई सुन(पढ़) नहीं सकता जब तक की आप उसे प्रकाशित न कर दे. यहाँ तो अच्छे मौके हैं अपनी भाव (मन में घुमरते विचारों) को पढ़ कर निरक्षण करने का, अपनी लिखी हुई भाषा और कथ्य कितना सटीक है, इसे समझने का . जब की गलियों और चौराहों पर आपको यह मौका नहीं मिलता. एक बार शब्द जबान से निकल गए तो निकल गए. भले ही आप कितना ही उत्साहित और क्रोधित क्यों न हो ब्लॉग पोस्ट को प्रकाशित करने के वक़्त पुरे होश में होते हैं.
एन, यही बात मैं पूछना चाहता हूँ की जब आप होश में होते हैं, एक लेखक की भूमिका में एक एक शब्द और वाक्य शुचिता से लिखते हैं, वर्तनी, व्याकरण का भी ख्याल रखते हैं. फिर सन्देश गलत क्यूँ हो जाता है? असामाजिक, असभ्य, अश्लील क्यों हो जाता है? दुसरे को नीचा दिखाने वाला क्यों हो जाता है? साफ़ जाहिर है की कुछ लोग जानबूझ कर अपनी लेखकीय प्रतिभा रूपी छेनी और तर्कों(कुतर्कों) के भार रूपी हथोड़े से व्यवस्था रूपी सुन्दर दीवार को गिराना चाहते हैं. ऐसा करना उन्हें रस (मजा) देता है. ऐसे ही कृत्यों पर सभ्य समाज को शर्मिंदगी महसूस होती है. चाहे वो अपना गाँव चौपाल हो या तकनीक से सज्जित अपना वैश्विक गाँव चौपाल (ब्लॉग जगत) हो. नुक्सान पुरे समाज का ही होता है. व्यक्तिगत और जातिगत बहस किसी से फोन, चैटिंग या ईमेल पर भी की जा सकती है. ओपन ब्लॉग पर ही क्यों..??
यहाँ कोई विवाद नहीं है, स्वस्थ ब्लोगिंग (लेखन) के जरिये कोई भी बहस नतीजे पर पहुँच सकती है. धर्म-जाति विरोधी,व्यक्तिगत आक्षेप या अभद्र अश्लील रोषपूर्ण भाषा प्रयोग करने से कुछ भी हाथ नहीं आने वाला. हाँ दंगे भड़कने का खतरा जरुर रहेगा.
आशा है इस प्रकरण पर अब कोई वाद विवाद नहीं होने चाहिए.
11 comments:
वर्तमान में ब्लॉगजगत में कुछ शरारती और असामाजिक तत्वों द्वारा जो किया जा रहा है उसके मद्देनजर
तमाम ब्लोगर के लिए यही एक सार्थक कदम होगा.
सही कहा आपने, ब्लॉग जगत से इस तरह की गंदगी को दूर किया जाना चाहिए।
------------------
सिर पर मंडराता अंतरिक्ष युद्ध का खतरा।
परी कथाओं जैसा है इंटरनेट का यह सफर।
बिल्कुल सही कहा आपने ।
आप की राय उचित है, लेकिन इन्हे जबाब दे तो दे केसे, गंद बोलना हमे नही आता, इन की तरह नंगा होने हमे नही आता, इन की इज्जत नही लेकिन हमे तो अपनी इज्जत प्यारी है, आप का लेख आज शाम को दोवारा ध्यान से पढुंगा.
धन्यवाद
केवल एक प्रश्न करना चाहूंगा कि क्या शालीनता कायरता की निशानी है? कई लोगों की प्रतिक्रियाएं पढ़ कर मन दुखी हो जाता है। ऐसा लगता है कि इस माध्यम का प्रयोग वे अपनी कुंठा और भड़ास निकालने में कर रहें है।
जो तबियत हरी नहीं करते,
उनसे हम दोस्ती नहीं करते।
बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी
.
.
.
सुलभ जी,
आपने एक मुद्दा उछाला है, आपकी राय को पूर्ण सम्मान देते हुऐ भी मैं असहमत हूँ... ब्लॉगिंग का फायदा यही है कि यहां कोई संपादक नहीं है... अत: मन के अंदर चल रही बातें भी आ जाती हैं बाहर... ठीक है कि कुछ का सौन्दर्यबोध आहत होता है उन बातों से... पर ये वोही बातें हैं जो बोली जाती हैं गलियों और चौराहों पर... ब्लॉगर उनको ब्लॉग पर लिखता है... जवाब में कुछ कहासुनी होती है दूसरे पक्ष से... पर संवाद तो होता ही है!
और लोकतान्त्रिक समाज का मानक यही है... झगड़े तो होते ही रहते हैं... पर संवाद और बहसें चलते रहनी चाहिये!
आदरणीय सुरेश जी के जवाब का भी इंतजार रहेगा...
आओ अंगीकार करें 'शाश्वत सत्य' को.......प्रवीण शाह
@प्रवीण शाह जी,
आपने मेरी साधारण सी बात को समझने का प्रयास किया. इस के लिए हमारा धन्यवाद स्वीकार करें.
आप कहते हैं, "ब्लॉगिंग का फायदा यही है कि यहां कोई संपादक नहीं है... अत: मन के अंदर चल रही बातें भी आ जाती हैं बाहर."
मैं कहता हूँ यहाँ ब्लोगर लेखक ही सम्पादक है और प्रकाशक भी. ये तो और अभी अच्छी बात है जब आप अपने मन के भाव को लिखते हैं, तो उसे तबतक कोई सुन(पढ़) नहीं सकता जब तक की आप उसे प्रकाशित न कर दे. यहाँ तो अच्छे मौके हैं अपनी भाव (मन में घुमरते विचारों) को पढ़ कर निरक्षण करने का, अपनी लिखी हुई भाषा और कथ्य कितना सटीक है, इसे समझने का . जब की गलियों और चौराहों पर आपको यह मौका नहीं मिलता. एक बार शब्द जबान से निकल गए तो निकल गए. भले ही आप कितना ही उत्साहित और क्रोधित क्यों न हो ब्लॉग पोस्ट को प्रकाशित करने के वक़्त पुरे होश में होते हैं.
एन, यही बात मैं पूछना चाहता हूँ की जब आप होश में होते हैं, एक लेखक की भूमिका में एक एक शब्द और वाक्य शुचिता से लिखते हैं, वर्तनी, व्याकरण का भी ख्याल रखते हैं. फिर सन्देश गलत क्यूँ हो जाता है? असामाजिक, असभ्य, अश्लील क्यों हो जाता है? दुसरे को नीचा दिखाने वाला क्यों हो जाता है? साफ़ जाहिर है की कुछ लोग जानबूझ कर अपनी लेखकीय प्रतिभा रूपी छेनी और तर्कों(कुतर्कों) के भार रूपी हथोड़े से व्यवस्था रूपी सुन्दर दीवार को गिराना चाहते हैं. ऐसा करना उन्हें रस (मजा) देता है. ऐसे ही कृत्यों पर सभ्य समाज को शर्मिंदगी महसूस होती है. चाहे वो अपना गाँव चौपाल हो या तकनीक से सज्जित अपना वैश्विक गाँव चौपाल (ब्लॉग जगत) हो. नुक्सान पुरे समाज का ही होता है. व्यक्तिगत और जातिगत बहस किसी से फोन, चैटिंग या ईमेल पर भी की जा सकती है. ओपन ब्लॉग पर ही क्यों..??
यहाँ कोई विवाद नहीं है, स्वस्थ ब्लोगिंग (लेखन) के जरिये कोई भी बहस नतीजे पर पहुँच सकती है. धर्म-जाति विरोधी,व्यक्तिगत आक्षेप या अभद्र अश्लील रोषपूर्ण भाषा प्रयोग करने से कुछ भी हाथ नहीं आने वाला. हाँ दंगे भड़कने का खतरा जरुर रहेगा.
आशा है इस प्रकरण पर अब कोई वाद विवाद नहीं होने चाहिए.
बहुत सही सन्देश दे गए आप तो, पर इसे मानने वाला कोई है भी?
आपसे सहमत .मानी जाय या नहीं पर अंतरिम ,निहित आचरण और भाषा में , स्वानुशासन जरूरी है . कम से कम माहौल न ख़राब हो .
Bachaaai aur shubh kamnayen...
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