अपने ब्लॉगजगत में यूँ तो भाँती भाँती के आकर्षक अनोखे ब्लॉग हैं और विशिष्ट अंदाज वाले ब्लॉग स्वामी अपने अपने ब्लॉग पर शब्द क्रीडा करते देखे जाते हैं. साहित्य के विभिन्न रस में हाल के दिनों में व्यंग्य-ग़ज़ल रस खूब लोकप्रिय हुआ है. आइये आज मैं आपको मिलवाता हूँ, रतलाम के एक वरिष्ठ ब्लोगर
श्री मंसूर अली हाशमी से. हाशमी जैसे शख्सियत का परिचय १-२ पन्ने में देना मुश्किल है.
एक लाइन में कहा जाए तो यही कहेंगे - मंसूर अली जी, हिंदी, उर्द्दु, अंग्रेजी शब्दों के माहिर खिलाड़ी हैं. ये राह चलते, बातें करते शब्दों से ऐसे खेलते हैं जैसे ट्वेंटी-20 में रन बरसते हैं.
श्री हाशमी अपने हिन्दुस्तान में अदब संस्कृति के बहुत हिमायती हैं. जब भी जहाँ भी भाईचारे, एकता, अमन को खंडित होते देखते हैं, इनको बहुत ठेस लगता है. गिरते राजनैतिक चरित्र पर हलके फुल्के शब्दों में इनका गंभीर चिंतन साफ़ झलकता है. भारत में अपने गौरवशाली परम्पराओं की हिफाज़त करने वाले एक खुशमिजाज़ सच्चे व्यक्ति हैं.
कई वर्ष खाड़ी देश कुवैत में बिताने के बाद अपने वतन भारत लौट आये. जापान एवं अन्य मुल्क की यात्रा कर चुके मंसूर अली का मानना है, हिन्दुस्तान जैसी आबो हवा कहीं नहीं है. वर्तमान में रतलाम (म.प्र.) में मेडिसिन रिटेल बिजनेस में सक्रिय हैं. लगातार विदेशी हमले से आहात होकर ये कुछ यूँ ग़ज़ल कहते हैं -
उनका आंतक फ़ैलाने का दावा सच्चा था,
शायद मैरे घर का दरवाज़ा ही कच्चा था।
पूत ने पांव पसारे तो वह दानव बन बैठा,
वही पड़ोसी जिसको समझा अपना बच्चा था।
नाग लपैटे आये थे वो अपने जिस्मो पर,
हाथो में हमने देखा फूलो का गुच्छा था।
तौड़ दो सर उसका, इसके पहले कि वह डस ले,
इसके पहले भी हमने खाया ही गच्चा था।
जात-धर्म का रोग यहाँ फ़ैला हैज़ा बनकर,
मानवता का वास था जबतक कितना अच्छा था।
सबसे मजेदार बात, इनकी खासियत मैं बता दूं - अंग्रेजी काफिया को लेकर कमाल के ग़ज़ल कहते हैं.
फिर बुद्धिजीवियों से इक mistake हो गई,
अबकी, शिकार चूहे से एक CAT हो गई!
थी NET पर सवार मगर लेट हो गयी,
होना था T-twenty, मगर test हो गई.
zero फिगर पे रीझ के लाये थे पिछले साल,
इक साल भी न गुज़रा, वो अपडेट* हो गयी.
e-mail से जुड़े थे, हुए जब वो रु-ब-रु,
देखा बड़े मियां को तो miss जेट* हो गयी.
बिन मोहर के ही वोट से होता चुनाव अब,
pee बोलती मशीन ही ballet हो गयी.
महबूबा,पत्नी , बाद में बच्चों कि माँ बनी,
कुछ साल और गुज़रे तो सर्वेंट हो गयी.
'सत्रह बरस'* ही निकली जो लिबराह्नी रपट,
पक्ष-ओ-विपक्ष दोनों में रीजेक्ट हो गयी.
लौट आये उलटे पाँव, मियाँ तीस मारखां,
रस्ते से जब पसार* कोई cat हो गयी.
अमरीका ने नकारा तो रशिया पे ख़ैर की,
स्वाईंन फ्लू से उनकी वहां भेंट हो गयी.
टिप्याएं रोज़-रोज़ तो ये फायदा हुआ,
गूगल पे आज उनसे मेरी chat हो गयी.
इनकी रचनाओं / ब्लॉग का लुत्फ़ उठाने के लिए आप
यहाँ www.aatm-manthan.com भ्रमण करें.
ब्लॉग पता है: http://mansooralihashmi.blogspot.com/ जहाँ वे नियमित
आत्म मंथन करते हैं.
कम शब्दों में to-the-point कहने वाले मंसूर अली सुलझे हुए, फिट एंड फाइन, बुद्धिजीवी, स्नेही ब्लोगर हैं.
खबरों के कुछ चेनल बीमार नज़र आते है,
इनमे से कुछ लोकल अखबार नज़र आते है.
बिग बोसों के छोटे कारोबार नज़र आते हैं,
छुट-भय्यो को,हर दिन त्यौहार नज़र आते है.
नोस्त्रोद्र्म के चेले तो बेज़ार नज़र आते है,
प्रलय ही के कुछ चेनल प्रचार नज़र आते है.
कुछ चेनल तो जैसे कि सरकार नज़र आते है,
मिनिस्टरों से भरे हुए दरबार नज़र आते है.
घर का चेन भी लुटते देखा है इसकी खातिर,
आतंक ही का ये भी एक प्रसार नज़र आते है.
चीयर्स बालाओं से शोहरत* का घटना-बढ़ना,
खेल-कूद में कैसे दावेदार नज़र आते है!
नूरा कुश्ती, फिक्सिंग के मतवालों की जय-जय,
झूठ को सच दिखलाने को तैयार नज़र आते है.
देखिये कविताओं में किस तरह स्वास्थ्य सलाह दे रहे हैं -
जहाँ तक काम चलता हो ग़िज़ा से,
वहाँ तक चाहिये बचना दवा से।
अगर तुझको लगे जाड़े में सर्दी,
तो इस्तेअमाल कर अण्डे की ज़र्दी।
जो हो मह्सूस मे'दे में गिरानी,
तो पीले सौंफ़ या अदरक का पानी।
अगर ख़ूँ कम बने बल्ग़म ज़्यादा,
तो खा गाजर,चने,शल्जम ज़्यादा।
जो बदहज़मी में तू चाहे इफ़ाक़ा*,
तो कर ले एक या दो वक्त फ़ाक़ा।*
जो हो 'पैचिस' तो पेट इस तरह कस ले,
मिला कर दूध में लीमूं का रस ले।
जिगर के बल पे है इन्सान जीता,
अगर ज़ोअफ़े* जिगर है खा पपीता।
जिगर में हो अगर गर्मी दही खा,
अगर आंतो में हो ख़ुश्की तो घी खा।
थकन से हो अगर अज़लात* ढीले,
तो फ़ौरन दूध गर्मागर्म पीले।
जो ताकत में कमी होती हो महसूस,
तो फिर मुलतानी-मिस्री की डली चूस्।
ज़्यादा गर दिमाग़ी हो तैरा काम,
तो खाया कर मिला कर शहद-ओ-बादाम्।
शब्दों के अनोखे खिलाड़ी - मंसूर अली हाशमी