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अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्, उदारमनसानां तु वसुधैव कुटुंबकम्

Monday, January 4, 2010

छोटी सी ठंडी एक कविता

आज ठण्ड और कोहरा इतना ज्यादा है की पोस्ट लिखना तो दूर पोस्ट पढना भी मुश्किल हो रहा है.
शुक्र है एक छोटी सी कविता पढने को मिली, तो मैंने भी आज एक छोटी कविता कह दी.





 सुबह देर तक
बंद रहे किवाड़
ठण्ड में सूरज भी कहाँ निकला 


-सुलभ
  

21 comments:

अनूप शुक्ल said...

अब लेनी होगी सूरज को एक कैजुअल लीव।

वाणी गीत said...

सूरज नहीं निकला सुबह यहाँ भी ...!!

ghughutibasuti said...

वाह, सचमुच छोटी है।
नव वर्ष की हार्दिक शुभ कामनाएँ।
घुघूती बासूती

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

हाँ ! यहाँ भी नहीं निकला.... फोन किया तो पता चला कि सूरज को भी ठण्ड लग गई है.... ब्लोअर चला के लेटा है....

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

वाह सुलभ भाई, ललित जी की अर्ध कविता पूर्ण कर दी आपने !

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

दिनभर अलाव का
करते रहे जुगाड़ !
बादलों के बीच सूरज कब ढला,
पता ही न चला !

मनोज कुमार said...

बहुत अच्छा लिखा है आपने।

Abhishek Ojha said...

मैं तो एक सप्ताह के 24X7 बोनफायर के बाद आज ही लौटा हूँ. यहाँ वैसी ठंढ नहीं तो मिस कर रहा हूँ :(
बाकी बस अपना भी कुछ चुनिन्दा जगहों पर ही जाना होता है. ये टेम्पलेट बेहतर पठनीय है.

देवेन्द्र पाण्डेय said...

कहीं ऐसा तो नहीं कि पंछी
दाने-दाने को मोहताज हो गए!
आए तो होंगे किवाड़ खुलने के इतंजार में।
---आपकी छोटी कविता और भी बहुत कुछ कहती है।
-बधाई.

राज भाटिय़ा said...

नही निकला?? चलो पहले उसे निकालो, यह भी काम चोर होता जा रहा है... हम लोगो को देख कर

महावीर said...

चित्र और क्षणिका दोनों ही सुन्दर हैं.
महवीर शर्मा

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढ़िया!!

प्रकाश पाखी said...

अच्छा कहा, आपने दृश्यावली बदल के रख दी......पर मुझे शिल्पकार जी के शब्दों ने गहराई से प्रभावित किया...शुक्रिया एक उम्दा रचना और रचनाकार से परिचित कराने के लिए.

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

@प्रकाश पाखी जी,

यही तो हमारी ब्लोगरी है. अपना ब्लॉग धर्म.

बाती से बाती जलाते चलो
प्रेम की गंगा बहाते चलो...

सर्वत एम० said...

तीन पंक्तियों की इस कविता में आपने इतनी बड़ी बात कह दी जो शायद ५ पन्नों में भी कहना मुश्किल होता. मैं बदला नही चुका रहा, शायद आपको स्वयं भी इसका एहसास न हो की आपकी यह रचना कितनी बहु आयामी हो गयी है (मुझे क्षमा कीजिएगा अगर आप आहत हुए हों मेरी बात से) . ऐसी रचनाएँ रची नहीं जातीं बल्कि ऊपर वाला शायद उपहार स्वरूप इन्हें सीधे हमारे दिमाग में उतार देता है.
आप मेरे ब्लॉग पर आये, कमेन्ट दिया और ऐसे अल्फाज़ में तारीफ की कि मैं पानी-पानी हो गया. यार, इतनी तारीफों का हकदार नहीं हूँ मैं. ऐसा न हो कि जब गिरूँ तो कोई सम्भालने वाला भी न हो.

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

@सर्वात एम. 'जमाल' जी,

आप एक सिद्धहस्त गज़लकार हैं, ऐसा मुझे लगता है. और मैंने जो भी शब्द तारीफ़ में कहे शे'र पढने के बाद वह मेरी प्रथम प्रतिक्रया मात्र थी.
आपको मेरी कविता पसंद आई, बहुत खुश हूँ. आप ठीक कहते हैं, कविता अवतरित होती है. हम हरदिन सोचकर नहीं लिख सकते.

आप जैसे वरिष्ट और अनुभवी साथी हमारे साथ चलेंगे तो सफ़र आसन ही होगा न, गिरने की नौबत नहीं आएगी...हा हा (गुस्ताखी माफ़ हो )

बहुत शुक्रिया आपका.

श्रद्धा जैन said...

kya baat kahi hai
kam shabdon mein thand bata di

nav varsh ki hardik shubhkamnaayen

दिगम्बर नासवा said...

वाह ......... ये ग़ज़ब की रचना है .......... शशक्त लिखा है ......... सुलभ जी ......... नव वर्ष मंगल मे हो .......

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

कुछ न कहके भी कितना कुछ कह डाला।

--------
बारिश की वो सोंधी खुश्बू क्या कहती है?
क्या सुरक्षा के लिए इज्जत को तार तार करना जरूरी है?

36solutions said...

बहुत सुन्दर.

Unknown said...

छोटी सी ठंडी एक कविता..ठिठुरती ठंड वाह .

लिंक विदइन

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जिंदगी हसीं है -
"खाने के लिए ज्ञान पचाने के लिए विज्ञान, सोने के लिए फर्श पहनने के लिए आदर्श, जीने के लिए सपने चलने के लिए इरादे, हंसने के लिए दर्द लिखने के लिए यादें... न कोई शिकायत न कोई कमी है, एक शायर की जिंदगी यूँ ही हसीं है... "