दो गवाह और झूटी कहानी देखकर
लिख सजा बेगुनाह को कलम है शर्मशार
फैसले हुए हैं कागज़ कानूनी देखकर
ख्वाहिशों कि उड़ान अभी बाकी है बहुत
मियाँ घबरा गए ढलती जवानी देखकर
जाने क्या देखकर जाने क्या सोचकर
फूल मुरझा गए सख्त निगरानी देखकर
वहां न कोई भेड़िया था न कोई दरिंदा
गुड़िया रोई थी चेहरा इंसानी देखकर
खालिश डिग्री दिखाकर मांगी थी नौकरी
वो हंस दिए हमारी नादानी देखकर
सुबह चल निकला था घर से प्यासा ही
राहत मिली अब रस्ते में पानी देखकर
***
- सुलभ जायसवाल 'सतरंगी'
27 comments:
बहुत सुंदर ग़ज़ल....
मूड मस्त कर दिया सुलभ भाई....सुबह-सुबह बेड टी के साथ इतनी सुलगती-उफलती गज़ल...दिन का मिजाज ही बदल गया....
आलोक साहिल
सच में, भीतर तक कचोट गयी।
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जिसपर हमको है नाज़, उसका जन्मदिवस है आज।
कोमा में पडी़ बलात्कार पीडिता को चाहिए मृत्यु का अधिकार।
वहां न कोई भेड़िया था न कोई दरिंदा
गुड़िया रोई थी चेहरा इंसानी देखकर .....kya baat kahi hai
बहुत खूब व सटिक कहा आपने ।
गुडिया रोई थी चेहरा इंसानी देखकर ...जज़्बात से भरी ग़ज़ल ...!!
वहां न कोई भेड़िया था न कोई दरिंदा
गुड़िया रोई थी चेहरा इंसानी देखकर ।
हर शब्द गहराई की अनन्त व्याख्या लिये,बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति,बधाई ।
जाने क्या देखकर जाने क्या सोचकर
फूल मुरझा गए सख्त निगरानी देखकर
वहां न कोई भेड़िया था न कोई दरिंदा
गुड़िया रोई थी चेहरा इंसानी देखकर
खालिश डिग्री दिखाकर मांगी थी नौकरी
वो हंस दिए हमारी नादानी देखकर
teenoN sheroN meN wo baateN kahi gayiN haiN jo aaj ki taarikh meN kahi jani zaruri haiN. Pahle sher meN vanchit ya shasit ki bebasi aur bekasi ka bayaN bakhubi huya hai.
खालिश डिग्री दिखाकर मांगी थी नौकरी
वो हंस दिए हमारी नादानी देखकर
--वाह सुलभ..क्या बात है...वाकई आनन्द आ गया!
ख्वाहिशों कि उड़ान अभी बाकी है बहुत
मियाँ घबरा गए ढलती जवानी देखकर
बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति !
ख्वाहिशों कि उड़ान अभी बाकी है बहुत
मियाँ घबरा गए ढलती जवानी देखकर
बहुत खूब।
मुझे माफ़ कीजिये ! मैं कोई शायर नहीं हूँ
शे'र पढता हूँ आपकी मेहरबानी देखकर
भई आप के एक एक शेर मै तो तल्ल्खी है, उस का जबाब नही, बहुत ही सुंदर लाजवाब, बहुत कम पढने को मिलते है ऎसे शेर
भाटिया जी, आप का इंतजार कर रहा था
मैं. अब शान्ति मिली है आपकी टिप्पणी
देखकर .
सुलभ जी ,
बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है....कटाक्ष करती हुई सी....
सच बयां कर दिया है.....बधाई
सुलभ बाबू कुछ कहना अब मुश्किल है
हैरान हैं हम भी कलम की रवानी देखकर
बहुत खूब !!!
सुन्दर ग़ज़ल...बहुत अच्छी लगी आपकी ये ग़ज़ल
रचना अच्छी लगी।
ख्वाहिशों कि उड़ान अभी बाकी है बहुत
मियाँ घबरा गए ढलती जवानी देखकर ...
वहां न कोई भेड़िया था न कोई दरिंदा
गुड़िया रोई थी चेहरा इंसानी देखकर ......
बहुत तल्ख़ शेर हैं सुलभ जी ......... आपने बहुत मस्त मौला अंदाज़ में लिखे है सब के सब शेर ........... mazaa आ गया आपकी ग़ज़ल पढ़ कर ...........
आप गर शायर नही तो बतायें कोन है
सब तो हैरां रह गये कलम की रवानी देख कर ।
waah! bhaut hi sundar gazal kahi hai...
har sher ek se badh kar ek!
[Sulabh ..aap ke blog page black colour par tippani karne ke liye page ko highlight karna padta hai..nahin to comment ka option dikhta nahin..please check kareeye]
हर शेयर दिल को छू गया। किसी एक तारीफ करूं तो बेइन्साफी हो गई।
वहां न कोई भेड़िया था न कोई दरिंदा
गुड़िया रोई थी चेहरा इंसानी देखकर
---क्षमा कीजिएगा सुलभ जी पूरी गज़ल में यह शेर इतना भारी है
कि इसके आगे सभी फीके लगते हैं।
इस शेर की जितनी भी तारीफ की जाय कम है।
यह मेरे मन की बात है हो सकता है मैं गलत हूँ
अच्छी रचना सुलभ जी। कुछ मिस्रे तो सचमुच लाजवाब बन पड़े हैं।
लेकिन रचना खूब मेहनत माँग रही है, यदि इसे सचमुच ग़ज़ल कहना चाहते हैं तो।
अरे सुलभ, तुम तो बड़े छुपे रुस्तम निकले।
एक एक शेर एक एक कहानी कह रहा है।
बहुत बढ़िया भाई , लाज़वाब।
सुलभ जी मुझे याद नही की मैं पहले आप के ब्लॉग पर आया हूँ या नही पर हाँ एक बात तय है आपकी रचनाएँ मुझे आज इतना प्रभावित की अब मुझे निरंतर आना ही पड़ेगा ऐसा मुझे लग रहा है..
आज की ग़ज़ल अल्टीमेट..बधाई स्वीकारे भाई..बहुत बढ़िया लिखते है आप तो..
बहुत सुन्दर गज़ल. बधाई.
वहां न कोई भेड़िया था न कोई दरिंदा
गुड़िया रोई थी चेहरा इंसानी देखकर
बेहतरीन ग़ज़ल...हर शेर सच बयानी करता हुआ...लिखते रहें.
नीरज
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