Wednesday, December 31, 2008
साल 2008
दिल्ली भी थर्राया, जयपुर बंगलोर भी थर्राई
इस साल खुनी खेल में मुंबई भी नहाई
क्या याद करे क्या बात करे साल 2008 की
जश्न अधुरा नए साल का हर दिल में है खौफ समाई.
2.
इस बीच इंडियन क्रिकेट का ऐसा कायापलट हुआ
ICL और IPL का मुकाबला भी गज़ब हुआ
क्रिकेट के आगे फुटबॉल हॉकी पानी भरते रहे
धोनी नम्बर 1 सीढियाँ ऊपर चढ़ते रहे.
3.
विश्व-अर्थव्यवस्था की बिगड़ी ऐसी चाल
मार्केट गिरा मुंह के बल आया ऐसा भूचाल
आया ऐसा भूचाल अमेरिका भी हारा
रिजर्व बैंक हो या वर्ल्ड बैंक सब बेचारा
कहत सुलभ कविराय कोई उपाय न सूझे
रोजगार के हजारो दीये पलभर में बूझे
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Tuesday, December 23, 2008
सुप्रभात (Good Morning)
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Saturday, December 20, 2008
अखबारों के पतंग बना
बचपन में हम उन दिनों
बहुत ज्यादा शरमाते थे.
कविता के दो लाइन भी
खुलकर नही बोल पाते थे.
दूरदर्शन के आगे बैठ
जंगल- जिंगल गाते थे.
पापा घर में आ जाये तब
डर से उनके घबराते थे.
स्कूल में हम परीक्षाओं में
अंक बहुत अच्छे पाते थे.
लालटेन की मंद रौशनी में
पढ़ते-पढ़ते सो जाते थे.
मुहल्ले के साथियों को
कहानियाँ खूब सुनाते थे.
एक रूपये का नोट छुपाकर
किताबों में, हम इतराते थे.
जाड़े की धूप में छत पे बैठ
हम आधे बाल्टी नहाते थे.
माँ से थप्पर खा कर ही
फिर दिन में सो पाते थे.
मेहमाँ जो घर में आये कोई
देख मिठाइयाँ ललचाते थे.
शीशी, गत्ते, कबाड़ बेच के
मलाई बर्फ हम खाते थे.
अखबारों के पतंग बना
जैसे तैसे उड़ाते थे.
दादाजी के पाँव दबा
चार आने हथियाते थे.
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Thursday, December 11, 2008
मुख्यमंत्री चुनाव December 2008
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Monday, December 8, 2008
देश बेहाल है
हर विभाग आज सुस्त और बेहाल है
काम कुछ नही सिर्फ़ हड़ताल है ।
भ्रष्ट्राचार का तिलक सबके भाल है
भेड़िये ओढे भेड़ की खाल है।
उपरवाले तो तर मालामाल है
हमारे खाते में आश्वासनों का जाल है।
घोटालो से त्रस्त देश कंगाल है
नेता बजा रहें सिर्फ़ गाल है।
लोकतंत्र की बिगड़ी ऐसी चाल है
ईमानदार मेहनती जनता फटेहाल है।
चोर पुलिस नेता की तिकरी कमाल है
राजनीति जैसे लुटेरों का मायाजाल है।
Friday, December 5, 2008
खामोश जुबां से इक ग़ज़ल
ख्वाईश इन्किलाब की है मुसलसल लिख रहा हूँ।
सब कुछ लूट चुका था बस्तियां वीराँ थी
बेमतलब हुआ क्यूँ फिर दखल लिख रहा हूँ।
आवाजों के भीड़ में मेरी आवाज़ गुम है
अल्फाजों को मैं अपने बदल लिख रहा हूँ।
बेबस आँखों में शोले से उफनते हैं
अंधेरे में हो रही हलचल लिख रहा हूँ।
उम्मीद इस दिल को फिर से तेरा दीदार हो
ख्यालों में तेरे खोया हरपल लिख रहा हूँ।
बेहद खौफ़नाक मंज़र है और क्या बयां करूँ
खामोश जुबां से इक ग़ज़ल लिख रहा हूँ।
अज़ल = beginning
मुसलसल = बार-बार, निरंतर
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Wednesday, December 3, 2008
आतंक का दर्द - एक सच्चाई
मासूमो का खून बहाकर बोलते हैं जेहाद
बोलते हैं जेहाद अल्लाह के घर जाओगे
लेकिन उससे पहले तुम जानवर बन जाओगे
बम फटे मस्जिद में तो कभी देवालय में
महफूज़ छुपे बैठे हैं जो आतंक के मुख्यालय में
आतंक के मुख्यालय में साजिश वो रचते हैं
नादान नौजवान बलि का बकरा बनते हैं
रो रहा आमिर कासव क्या मिला मौत के बदले
अपने बुढडे आकाओं से हम क्यों मरे पहले ॥
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Monday, December 1, 2008
विश्व एड्स दिवस - 1 दिसम्बर
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एड्स एड्स एड्स विश्व जगत में हो रहा चर्चा
रोग ये लाईलाज़ है करवा दे लाखो खर्चा
करवा दे लाखो खर्चा नही कोई बात बनेगी
जबतक शिक्षा की मशाल हर कोने में न जलेगी
भेदभाव, लज्जा, भय मन मस्तिष्क से तुम मिटा दो
स्वच्छ समाज निर्माण में सबको जीने की राह दिखा दो.
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Sunday, November 30, 2008
सुनो नेताओं के गुणगान
राजनीत की रसोई में नित बनते नए पकवान
चुनावी हवा बह रही है सुनो नेताओं के गुणगान
सुनो नेताओं के गुणगान जो लगे हैं देश को बांटने
गली गली में घूम रहे हैं सिर्फ़ वोटरों को आंकने
कह सुलभ कविराय आज सुनलो सारे उम्मीदवार
सीधे नरक में जाओगे जो चुनोगे जाती-धर्म की दीवार ॥
- सुलभ 'सतरंगी'
Friday, November 28, 2008
भारत और आतंकवाद - लगता है हम असहाय हैं ...
Wednesday, October 22, 2008
भारत एक ऐसा राष्ट्र है जिसके अन्दर महाराष्ट्र है।
भारत एक ऐसा राष्ट्र है जिसके अन्दर महाराष्ट्र है
मराठियों का सम्मान कैसे जब वहां ठाकरे राज है।
लगाया आग क्षेत्रवाद का फिर से जलने के लिए
टुटा मेरा सपना अखंड भारत पर मरने के लिए।
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Monday, August 25, 2008
त्रासदी (भ्रष्ट्र तंत्र के ख़िलाफ़ आवाज़ )
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उत्तर से लेकर दक्षिण तक
पूरब से लेकर पश्चिम तक
भिन्न भिन्न लोग हैं, मौसम है और
बहुत सी संस्कृति है.
विविधताओं से भरी अपने देश की धरती है.
फिर राजनीति के क्यूँ एक जैसे रंग हैं.
सबके इरादे नेक हैं.
जमकर खाइए, उनकी नीति एक है.
जब भी देश में कोई आपदा आई है
राहत के नाम पर हमारे नेताओं, अफसरों ने
अपनी जेबों में चांदी उगाई है.
न्याय के लिए तरसते गरीब रहे सदा भूखे.
चाहे बिहार में आई हो बाढ़
या गुजरात में पड़े सूखे !!
Saturday, August 16, 2008
15 अगस्त 2008
(१)ज़ातिभूमि विवाद में जब बह जाये भाईचारा
खुनी खेल की होली में चीखे गाँव सारा
चीखे गाँव सारा कौन सुनेगा किसकी बात
आतंक के साए में कटती सारी रात
कह 'सुलभ' कविराय कैसे नींद आये
पता नही कब नरसंहार हो
(२)
घरियाली आंसू बहाये लाशें वे गिनवाकर
की मिलेगा मुवावजा कहते हमदर्दी जताकर
कहते हमदर्दी जताकर अब नही होगा खुनी खेल
दंगाइयों से मिलकर वे करते रेलमपेल
कह 'सुलभ' कविराय क्या करेगी जनता बेचारी
सत्ताधारी नेताओं की जब हो करतूत सारी
.... और आज दिल्ली में 15 अगस्त बिताने के बाद स्वयं में आज़ादी पर्व के एहसास को भरपूर महसूस नही कर पाया। यहाँ 90 प्रतिशत विद्यार्थियों, नौजवानों को घर की छतों पर सुबह से शाम तक सिर्फ़ पतंगबाजी में व्यस्त पाया.
राष्ट्र की राजधानी दिल्ली में आज़ादी पर्व शायद सिर्फ़ लाल किले और टेलिविज़न प्रसारणों तक ही महदूद है. एक शेर याद आ रहा है -
इस दौर-ऐ-तरक्की के अंदाज़ निराले हैं
जेहन में अंधेरे और सड़कों पर उजाले हैं
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Thursday, August 14, 2008
आओ बच्चो तुम्हे दिखायें (parody)
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आओ बच्चो तुम्हे दिखायें झांकी हिन्दुस्तान की
भ्रष्ट्राचार घोटाला और सत्ता घमासान की
जय हो प्रजातंत्र ! जय हो प्रजातंत्र !!
उत्तर में कश्मीर को देखो खुनी आतंकवाद है
दक्षिण में वीरप्पन का काला साम्राज्य है
यमुना जी के तट को देखो प्रदुषनो का अम्बार है
गाँव गाँव और नगर नगर में यहाँ भयानक बढ़ है
देखो ये तस्वीर है अपने बदहाल हिंदुस्तान की
भ्रष्ट्राचार घोटाला और सत्ता घमासान की
जय हो प्रजातंत्र ! जय हो प्रजातंत्र !!
ये है अपना राजनेता नाज़ हैं इन्हे सरकार पे
इनको मतलब हवाई यात्रा और विदेशी कार से
ये तो अपनी रोटी सेंके साम्प्रदायिकता की आग में
संविधान की धज्जियाँ उड़ती यहाँ हर साल चुनाव में
निर्दोषों का रक्त है तिलक इनके अभिमान की
भ्रष्ट्राचार घोटाला और सत्ता घमासान की
जय हो प्रजातंत्र ! जय हो प्रजातंत्र !!
सुरक्षित नही यहाँ की जनता सबके सर परेशानी है
माहौल कितना जहरीला है खून में भी पानी है
कैसे कहें भारत महान कल्पना भविष्य की बेमानी है
रक्षक ही भक्षक बन गए शेष यही कहानी है
रो रहा गाँधी सुभाष देख हालत हिन्दुस्तान की
भ्रष्ट्राचार घोटाला और सत्ता घमासान की
जय हो प्रजातंत्र ! जय हो प्रजातंत्र !!
जय हो प्रजातंत्र ! जय हो प्रजातंत्र !!
-सुलभ
रचना तिथि : 10 अगस्त 2003
ब्लॉग प्रकाशन तिथि : 14 अगस्त 2008
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Tuesday, July 22, 2008
कठघरे में लोकतंत्र (विश्वास मत)
उपरवाले जमकर खाते हमको कुछ नही भाई
हमको कुछ नही भाई देखकर मन रोया
विधाता तुमने लोकतंत्र में कैसा बिज़ बोया
कह 'सुलभ' कविराय छोड़ो कविता वाचन
थाम लो राजनीत का जैसे भी हो दामन ॥
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Tuesday, March 25, 2008
यादों का इन्द्रजाल... Poetry by Sulabh Jaiswal: एक सुलभ सर्वसुलभ
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Monday, March 24, 2008
मस्त फाल्गुनी हवाओं की गुनगुनाती होली आयी...
रंगभरी मस्ती मे डूबी मस्तानों की टोली आयी
मस्त फाल्गुनी हवाओं की गुनगुनाती होली आयी ।
गली गली मे रौनक है घर मे हो रहा हंगामा
जिसको देखो वही रंगीन जीजा भाभी या हो मामा ।
छक कर खाओ पुवे पकवान लस्सी और मिठाई
नाचो गाओ और बजाओ ढोलक मंझीरे शहनाई ।
हर जीवन में बनी रहे यही उमंग यही तरंग
अपना पराया किसे कहें हर किसी पे डाले रंग ॥
- सुलभ जायसवाल
२२ मार्च २००८
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