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अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्, उदारमनसानां तु वसुधैव कुटुंबकम्
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Friday, May 25, 2012

मौसमी हम क्या खोजें (Ghazal)

 
मौसमी हम क्या खोजें
कुदरती हम क्या खोजें

रात दिन बस जल रहे
जिंदगी हम क्या खोजें

चाँद में ही दाग है
चांदनी हम क्या खोजें

तीरगी ही तीरगी
रोशनी हम क्या खोजें

बेहयायी जिस तरफ
सादगी हम क्या खोजें

मौत खुद ही आएगी
दुश्मनी हम क्या खोजें

राह चलते मिली ग़ज़ल
शायरी हम क्या खोजें

मुफलिसी के दौर में
सनसनी हम क्या खोजें

 
- सुलभ

Saturday, August 14, 2010

आज़ाद वतन में मुझको आज़ाद घर चाहिए

चाहे लाख व्यस्तता हो, दुश्वारियां हो, अकेलापन हो या पागलपन कुछ जिम्मेदारियां हर हाल में निभायी जाती हैं. ये बात अगर हर कोई समझ ले तो अपना मुल्क भी तरक्की कर जाये और गौरवशाली इतिहासों एवं कुर्बानियों से भरा अपना प्यारा भारत दुनिया में नंबर १ कहलाये.  मैं कहीं भी रहूँ स्कूल में, कालेज में, गली मोहल्ले के समितियों में  या व्यवसायिक कार्य स्थल पर पुरे जोशोखरोश और फक्र से जश्ने-आज़ादी मनाता हूँ. एक बहुत ही ख़ास ग़ज़ल आप सबकी ख़िदमत में पेश है -



कहीं हिन्दू किसी को मुस्लिम जरूर चाहिए
आज़ाद वतन में मुझको आज़ाद  घर चाहिए

गली हो मंदिर वाली या कोई मस्जिद वाली
खुलते हों जहाँ रोज दुकान वो शहर चाहिए

इससे पहले कि ये तिरंगा हो जाये तार तार 
हुक्मराँ  में भी शहीदों वाला असर चाहिए

नहीं देखना वो ख्वाब ताउम्र जो आँखों में पले
मुख़्तसर इस जिंदगी में एक हमसफ़र चाहिए

जालिम नज़रों से बचके मैं जब भी घर को आऊं
किवाड़ खुलते ही मुझे प्यार भरी नज़र चाहिए
***

~~आप सभी साथियों को स्वाधीनता दिवस की हार्दिक बधाई! - सुलभ

Sunday, November 15, 2009

कभी नाम था इज्ज़तदार में (शायद एक ग़ज़ल)

यह भी अपने आप में एक ग़ज़ल है जिसे मैंने मोहल्ले में रहने वाले एक बुजुर्ग के लिए लिखा है. और लिखा है देश के उन तमाम बुजुर्गों के लिए जो अकेलेपन का दंश झेल रहे हैं.

कभी नाम था इज्ज़तदार में
अब अकेला बचा हूँ घरबार में

आप दरवाजे पर आये होंगे
बेहोशी में था मैं बुखार में

बेटे सारे पराये हो गए
हद से ज्यादा दुलार में

दुश्मन कौन था मुझे नही पता
धोखा खाये दोस्ती की आड़ में

मैंने ख़रीदा था दुकाँ मैंने बेचा
फुजूल के चर्चे हुए बाज़ार में

एक अदद लाठी का सहारा है
जी रहा हूँ मौत के इंतजार में


रहनेवाला कोई नहीं तो क्या सोचना
जंग लगती रहे पुरखों के दीवार में ||

- सुलभ जायसवाल 'सतरंगी'

Saturday, October 10, 2009

सियासत में लूटेरों की गश्ती देखो तो ज़रा (Ghazal)



लहरों के ऊपर लड़ते कश्ती देखो तो ज़रा
जिंदगी-मौत के बीच मस्ती देखो तो ज़रा

दौड़ते हैं कदम बर्फ पर हाथों में बारूद लिये
दूर सरहद जज्बा-ए-वतनपरस्ती देखो तो ज़रा

साथ चलते बाशिंदों से ये कहाँ की नफरत है
बात बात पे जलते हैं बस्ती देखो तो ज़रा

हुस्न है; तो नाज़ नखरों के गहने भी होंगे
नासमझ दीवानों की ज़बरदस्ती देखो तो ज़रा

शहरों में आपाधापी किराये की छत के लिए
किसानों की जमीं है सस्ती देखो तो ज़रा

कौन
अपना रहनुमा यहाँ क्या हो मुस्तकबिल
सियासत में लूटेरों की गश्ती देखो तो ज़रा ||



(रहनुमा = Leader मुस्तकबिल = Future) [इस post पर आपकी प्रतिक्रिया]


Monday, September 7, 2009

आंखों में आज फिर सैलाब आया (ghazal)


अचानक एक और चुनाव आया
खर्च फिर से बेहिसाब आया।

हर रोज़ होते हैं सिर्फ यहाँ जलसे
ज़म्हूर मे कैसा यह रिवाज़ आया।

पूछा था हमने कभी उनसे खैरियत
बरसों बाद आज जवाब आया।

ज़ख्म ताजे हैं दिल के अब अभी
आंखों में आज फिर सैलाब आया।

बेकरारी है बहुत की अपनों से मिलूं
आज जब मैं अपने गाँव आया

Wednesday, July 1, 2009

एक खुशनुमा सहर लिखता हूँ

कुछ ऐसे जिया अब तक की बेखबर लिखता हूँ
न रहज़न न रहबर कोई मेरे मगर लिखता हूँ ।

जेहन से निकाल फेका है अपनी खासियत को
आज से एक आम आदमी का सफ़र लिखता हूँ।

प्यास बुझने की बेचैनी है मौत आने से पहले
जिंदगी को कभी दवा तो कभी ज़हर लिखता हूँ।

खुशबू तुम्हारे साँसों की उस ख़त से जाती नहीं
खोये सफ़र में एक हसीन हमसफ़र लिखता हूँ।

इन्किलाब में शामिल हूँ दोस्तो तुम भी देखो
पैगाम-ए-अमन एक खुशनुमा सहर लिखता हूँ।।

लिंक विदइन

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जिंदगी हसीं है -
"खाने के लिए ज्ञान पचाने के लिए विज्ञान, सोने के लिए फर्श पहनने के लिए आदर्श, जीने के लिए सपने चलने के लिए इरादे, हंसने के लिए दर्द लिखने के लिए यादें... न कोई शिकायत न कोई कमी है, एक शायर की जिंदगी यूँ ही हसीं है... "