ये दिल जब भी टूटे न आवाज़ आये
यूँ ही दिल ये रस्मे मोहब्बत निभाये
वो भी साथ बैठे हँसे और हंसाये
कोई जाके रूठे हुए को मनाये
मेरी दास्ताने वफा बस यही है
युगों से खड़ा हूँ मैं पलकें बिछाये
न पूछो कभी ज़ात उसकी जो तुमको
कहीं तपते सहरा में पानी पिलाये
खलल नींद में बहरों की कब है पड़ता
कोई चीख के शोर कितना मचाये
मेरे सपनो की राह में मुश्किलें हैं
न जाने नया साल क्या गुल खिलाये
- सुलभ
(नोट: सुबीर संवाद सेवा के मंच से तरही ग़ज़ल )
(नोट: सुबीर संवाद सेवा के मंच से तरही ग़ज़ल )
6 comments:
Bahut dinon baad padha aapko...naya saal mubarak ho!
मेरे सपनो की राह में मुश्किलें हैं
न जाने नया साल क्या गुल खिलाये
अजी जो होगा , अच्छा ही होगा...
सुलभ भाई
अच्छा लिखा है ...
वाऽह ! क्या बात है !
लिखते रहें … और श्रेष्ठ लिखते रहें …
नव वर्ष की अग्रिम शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार
बहुत सुन्दर
बहुत सुन्दर प्रस्तुति....
संलभ भाई साहब। आपका ब्लॉग सुंदर है और रचनाएं और भी सुंदर। अब आता रहूंगा।
सुलभ भाई इससे पहले की टिप्पणी में आपका नाम गलत टाइप हो गया, इसके लिए क्षमा करेंगे।
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