Wednesday, September 2, 2009
इक जरूरी सवाल मियाँ (ग़ज़ल)
ज़रा भीड़ से हट कर तो देखो हाल मियाँ
तेज बहुत हो गयी है जमाने की चाल मियाँ
बेइंतिहा लगे हैं दौर में बाजारों को समेटने
पर घर में नहीं महफूज़ किसी का माल मियाँ
सियासत में कदम रखा और जादूगर बन गए
दिखा रहे हैं एक से बढ़कर एक कमाल मियाँ
कितने छाले पड़े हाथों में अब दिखा रौनके-ए-चमन
एक फूल आज तोड़ी तो उस पे हुआ बवाल मियाँ
अब चराग ढूँढता हूँ के थोड़ी रौशनी मिले
अँधेरे में खो गया इक जरूरी सवाल मियाँ ॥
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9 comments:
सियासत में कदम रखा और जादूगर बन गए
दिखा रहे हैं एक से बढ़कर एक कमाल मियाँ
-वाकई लिख रहे हैं कमाल मियाँ..बहुत खूब!!
अब चराग ढूँढता हूँ के थोड़ी रौशनी मिले
अँधेरे में खो गया इक जरूरी सवाल मियाँ ॥....bahut khoobsurat...
सियासत में कदम रखा और जादूगर बन गए
दिखा रहे हैं एक से बढ़कर एक कमाल मियाँ
अरे भाई क्या कमाल कर दिया आप ने
वाह वाह मियां आप का दिल से धन्यवाद
हर पंक्ति लाजवाब है..कहूं तो मियां तुम छा गए...
ये अIधनुकिता के मानवता का उत्क्रिस्ट बखान क्या
बेइंतिहा लगे हैं दौर में बाजारों को समेटने
पर घर में नहीं महफूज़ किसी का माल मियाँ
बिलकुल सही.
बढ़िया ग़ज़ल.
हार्दिक आभार.
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
अब चराग ढूँढता हूँ के थोड़ी रौशनी मिले
अँधेरे में खो गया इक जरूरी सवाल मियाँ ॥
सुलभ जी बहुत अच्छा लिखते हैं आप...वाह.
नीरज
अब चराग ढूँढता हूँ के थोड़ी रौशनी मिले
अँधेरे में खो गया इक जरूरी सवाल मियाँ
वाह!
बहुत अच्छी ग़ज़ल कहते हैं आप
सुन्दर रचना, अच्छा लगा आपका ब्लॉग
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