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अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्, उदारमनसानां तु वसुधैव कुटुंबकम्

Saturday, December 20, 2008

अखबारों के पतंग बना

बचपन में हम उन दिनों
बहुत ज्यादा शरमाते थे.
कविता के दो लाइन भी
खुलकर नही बोल पाते थे.

दूरदर्शन के आगे बैठ
जंगल- जिंगल गाते थे.
पापा घर में आ जाये तब
डर से उनके घबराते थे.

स्कूल में हम परीक्षाओं में
अंक बहुत अच्छे पाते थे.
लालटेन की मंद रौशनी में
पढ़ते-पढ़ते सो जाते थे.

मुहल्ले के साथियों को
कहानियाँ खूब सुनाते थे.
एक रूपये का नोट छुपाकर
किताबों में, हम इतराते थे.

जाड़े की धूप में छत पे बैठ
हम आधे बाल्टी नहाते थे.
माँ से थप्पर खा कर ही
फिर दिन में सो पाते थे.

मेहमाँ जो घर में आये कोई
देख मिठाइयाँ ललचाते थे.
शीशी, गत्ते, कबाड़ बेच के
मलाई बर्फ हम खाते थे.

अखबारों के पतंग बना
जैसे तैसे उड़ाते थे.
दादाजी के पाँव दबा
चार आने हथियाते थे.


2 comments:

IT Consultant said...

अनमोल हैं बचपन की यादें ...

Rajat Narula said...

nice poem...

लिंक विदइन

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जिंदगी हसीं है -
"खाने के लिए ज्ञान पचाने के लिए विज्ञान, सोने के लिए फर्श पहनने के लिए आदर्श, जीने के लिए सपने चलने के लिए इरादे, हंसने के लिए दर्द लिखने के लिए यादें... न कोई शिकायत न कोई कमी है, एक शायर की जिंदगी यूँ ही हसीं है... "