रौनक-ए-गुलशन की ख़ातिर अज़ल लिख रहा हूँ
ख्वाईश इन्किलाब की है मुसलसल लिख रहा हूँ।
सब कुछ लूट चुका था बस्तियां वीराँ थी
बेमतलब हुआ क्यूँ फिर दखल लिख रहा हूँ।
आवाजों के भीड़ में मेरी आवाज़ गुम है
अल्फाजों को मैं अपने बदल लिख रहा हूँ।
बेबस आँखों में शोले से उफनते हैं
अंधेरे में हो रही हलचल लिख रहा हूँ।
उम्मीद इस दिल को फिर से तेरा दीदार हो
ख्यालों में तेरे खोया हरपल लिख रहा हूँ।
बेहद खौफ़नाक मंज़र है और क्या बयां करूँ
खामोश जुबां से इक ग़ज़ल लिख रहा हूँ।
अज़ल = beginning
मुसलसल = बार-बार, निरंतर
4 comments:
ji acha laga ..
aapne hume padha ..
aarambh me koi comment akre to achha lagta hai ..
ji dhanyawad
bahot khoob, aajke mahol ke liye ek sunder prastuti .
आपकी गजल पढ़ के दिल खुस हो गया.इसी तरह लिखते रहिये बढ़िया-२ AJAY SINGH(ONLY STUDENT)
fine it was in typical urdu i think .......though i dont have a required command on urdu i could not manage to understsnd this poem 100% but i could realize its beauty .......
wid best wishes
AKARSH JOSHI
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