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अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्, उदारमनसानां तु वसुधैव कुटुंबकम्

Friday, December 5, 2008

खामोश जुबां से इक ग़ज़ल

रौनक-ए-गुलशन की ख़ातिर अज़ल लिख रहा हूँ
ख्वाईश इन्किलाब की है मुसलसल लिख रहा हूँ।

सब कुछ लूट चुका था बस्तियां वीराँ थी
बेमतलब हुआ क्यूँ फिर दखल लिख रहा हूँ।

आवाजों के भीड़ में मेरी आवाज़ गुम है
अल्फाजों को मैं अपने बदल लिख रहा हूँ।

बेबस आँखों में शोले से उफनते हैं
अंधेरे में हो रही हलचल लिख रहा हूँ।

उम्मीद इस दिल को फिर से तेरा दीदार हो
ख्यालों में तेरे खोया हरपल लिख रहा हूँ।

बेहद खौफ़नाक मंज़र है और क्या बयां करूँ
खामोश जुबां से इक ग़ज़ल लिख रहा हूँ।

अज़ल = beginning
मुसलसल = बार-बार, निरंतर

4 comments:

अंकुर माहेश्वरी said...

ji acha laga ..
aapne hume padha ..
aarambh me koi comment akre to achha lagta hai ..
ji dhanyawad

Asha Joglekar said...

bahot khoob, aajke mahol ke liye ek sunder prastuti .

AJAY SINGH(Only Student)Bangalore said...

आपकी गजल पढ़ के दिल खुस हो गया.इसी तरह लिखते रहिये बढ़िया-२ AJAY SINGH(ONLY STUDENT)

akarshjoshi said...

fine it was in typical urdu i think .......though i dont have a required command on urdu i could not manage to understsnd this poem 100% but i could realize its beauty .......
wid best wishes
AKARSH JOSHI

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जिंदगी हसीं है -
"खाने के लिए ज्ञान पचाने के लिए विज्ञान, सोने के लिए फर्श पहनने के लिए आदर्श, जीने के लिए सपने चलने के लिए इरादे, हंसने के लिए दर्द लिखने के लिए यादें... न कोई शिकायत न कोई कमी है, एक शायर की जिंदगी यूँ ही हसीं है... "