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अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्, उदारमनसानां तु वसुधैव कुटुंबकम्

Tuesday, July 22, 2008

कठघरे में लोकतंत्र (विश्वास मत)

लोकतंत्र की दरिया में बहती धन की मलाई
उपरवाले जमकर खाते हमको कुछ नही भाई
हमको कुछ नही भाई देखकर मन रोया
विधाता तुमने लोकतंत्र में कैसा बिज़ बोया
कह 'सुलभ' कविराय छोड़ो कविता वाचन
थाम लो राजनीत का जैसे भी हो दामन ॥

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जिंदगी हसीं है -
"खाने के लिए ज्ञान पचाने के लिए विज्ञान, सोने के लिए फर्श पहनने के लिए आदर्श, जीने के लिए सपने चलने के लिए इरादे, हंसने के लिए दर्द लिखने के लिए यादें... न कोई शिकायत न कोई कमी है, एक शायर की जिंदगी यूँ ही हसीं है... "